ग़ज़ल – आया शहर कमाने था बरक़त के वास्ते
ग़ज़ल
■आया शहर कमाने था बरक़त के वास्ते।
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आया शहर कमाने था बरक़त के वास्ते।
लेकिन भटक रहे बद किस्मत के वास्ते।
कहके बुरा भला हमे बदनाम कर दिया
ख़ामोश हम रहे थे शराफत के वास्ते।
वे खून चूसते हैं गरीबों का नित यहाँ
बर्बाद मुल्क है ये सियासत के वास्ते।
उस गुलबदन कि याद में होते थे रतजगे
रहते थे बेकरार मुहब्बत के वास्ते।
परदेश जा रहा है भला कौन खुशी से
घर छोड़कर पड़े हैं वो दौलत के वास्ते।
उसने दहेज के लिए पगड़ी उछाल दी
ख़ामोश है पिता बस इज़्ज़त के वास्ते।
आया अजीब आज ज़माने का दौर है
उठती हैं उँगलियाँ अब नफ़रत के वास्ते।
अभिनव मिश्र अदम्य
शाहजहाँपुर, उ.प्र.