ग़ज़ल/ अपनी ज़िन्दगी से मिलते हैं
कभी हिरनी से मिलते हैं
तो कभी शेरनी से मिलते हैं
अब तो रोज़ रोज़ गुफ़्तगू में
हम अपनी ज़िन्दगी से मिलते हैं
हमारा ग़ुस्सा तो कब का पिघल गया जाँ
आजकल तुमसे बड़ी ही सादगी से मिलते हैं
चलता रहे ख़ुदारा ये काफ़िला दो दिलों का
हम ज़िंदा रहने के लिए ज़ोहरा-ज़बीं से मिलते हैं
इश्क़ का इलाज़ ढूढतें हुए कुछ फ़िरते हैं दरबदर
वो नबी से मिलते हैं औऱ हम हैं कि इक हँसीं से मिलते हैं
दोनों के दरमियाँ हैं दूरियाँ बहुत भी, फ़िर भी क़ुर्बत है
हमें ज़िन्दगी में कोई औऱ चाहिए ही नहीं ,बस उन्ही से मिलते हैं
ये दिल फ़कत उन्ही को दे दिया जिनके तलबगार हैं
इस क़दर मसरूफ़ हैं उनमें अब किसी किसी से मिलते हैं
जहाँ जहाँ भी जाती है नज़र वहाँ वहाँ सनम दिखता है
इक दो ही ठिकाने हैं हमारे मिलने के , वहीं से मिलते हैं
बड़े दीवाने हो गए हैं उनके हर वक़्त शायरी करते हैं
रातों में जग जगके उनके नैनो की मयकशी से मिलते हैं
उनके लिए ख़ुद को आसमां कर दें गर वो कह दें,
ख़ुद को ज़मीं भी कर सकते हैं,बड़ी तिश्नगी से मिलते हैं
उनकी इक झलक के लिए बड़ी जल्दी किया करते थे
अब आलम कुछ और है इसीलिए थोड़ी तसल्ली से मिलते हैं
~अजय “अग्यार