ग़ज़ल।नमक जो देश का खाकर विदेशी पेश आता है ।
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शराफ़त छोड़ कर सच की हँसी भरसक उड़ाता है ।
नकारा आदमी काबिज़ सभी का दिल दुखाता है ।
शहर मेरा सुधर जाए ख़ुदा ऐसी इनायत कर ।
यहाँ पर आदमी दौलत पे रिश्तों को लुटाता है ।
मुहब्बत से इलाजों का असर जिन पर नही होता ।
नफ़ासत बो रहा मन मे वही रंजिश बढ़ाता है ।
हमेशा चापलूसी कर डरा है आदमीयत से ।
इमानत छोड़ लालच मे अपना सिर झुकाता है ।
बसा दे न शहर यिक दिन कहीं वो बेईमानी का ।
नमक जो देश का खाकर विदेशी पेश आता है ।
ख़ुदा मेरे तुम्ही रहबर दिखा दो आइना सच का ।
मरी इंसानियत जिसकी वही ईमान गाता है ।
यही है आरजू ‘रकमिश’ उतर धरती पे तु आये ।
गुमानी बन वहशियत की नदी इंसां बहाता है ।
✍✍ रकमिश