ग़ज़ल।चरागे उल्फ़त जला हुआ है ।
ग़ज़ल।चरागे उल्फ़त जला हुआ है ।
ग़मो का आलम सजा हुआ है ।
चरागे उल्फ़त जला हुआ है ।
बुझी हुई सी शमा रुकी है ।
उदास आलम पड़ा हुआ है ।
नक़ाब उठता शबाब झलके ।
लबो पे शबनम रुका हुआ है ।
गिरी जो पलकें तराश ख़ंजर ।
लगी है दिल पर दवा हुआ है ।
अदा लुटाती खुब चाँदनी भर ।
कि आज मौसम थमा हुआ है ।
रफ़ू तो कर दे ये ज़ख़्म सारे ।
निसान दिल का हरा हुआ है ।
बुझा न ‘रकमिश’ पहेलियां तू ।
बेकार मुझसे जुदा हुआ है ।
रकमिश सुल्तानपुरी
=राम केश मिश्र