ग़म के हजार घूँट………तीन मुक्तक
ग़म के हजार घूँट………तीन मुक्तक
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कितना बे’दर्द हो गया’ संसार देखिये
कोई नहीं है’ पूछता’ अखबार देखिये
घायल तड़प रहा था’ वहाँ बीच सड़क पे
कारों की’ बिगड़ती हुई’ रफ्तार देखिये
जीवन गुजारना नहीं’ आसान अब यहाँ
सस्ता नहीं है’ एक भी’ सामान अब यहाँ
सस्ती महज़ है’ जिंदगी’ यह घास की तरह
इंसान को ही’ रौंदता’ इंसान अब यहाँ
ग़म के हजार घूँट यहाँ पी रहा हूँ’ मैं
रिश्तों की’ चादरें जो’ फटीं सी रहा हूँ’ मैं
लोगों ने’ तो दिया है’ मुझे सिर्फ ज़हर ही
फिर भी उमंग एक लिये जी रहा हूँ’ मैं
– आकाश महेशपुरी