ख़ोज
एक दिन कहा युँ जोश में, की मैं शेर दिल इंसान हूँ।
तबसे मुझसे जाने क्यूँ वो, हर पल डरे-डरे रहने लगे।।
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चौंक जाते, देख मुझको, जब जाता उनके पास में।
और छुप छुप कर के मुझसे, कानाफूसी सी करने लगे।।
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बात ये उन दिन की है, मैं बैठा था संग सहकर्मी के।
बंकर में था घुप्प अंधेरा, बाहर ठंड भी थे नरमी के।।
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की अचानक एक छोटी हलचल, सन्नाटे फ़िजा मे डोल गया,
सरसरा कर ठंडी हवाएं, कानो में पत्तो की हरकत बोल गया।
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थी तैनाती सरहद पे, सिमा सुरक्षा था अपने हाथ मे,
भय क्रान्त अपने मातहतों को, फिर यूँ लगाया बात में।
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मैंने कहा न डर तू मुझसे, हर गम के बन्धन तोड़ दे।
है लोमड़ी सी दिमाग मेरी, हर सोच मुझपे छोड़ दे।।
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बच न सकता मुझसे दुश्मन, है गिद्ध की सी मेरी नज़र।
घ्राण शक्ति है कुत्ते के जैसी, मैं सूंघ लूंगा हर एक खबर।।
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चीते के जैसी है फुर्ती मेरी, और घोड़े सी मेरी चाल है।
चिकनी चुपड़ी सूरत मग़र, अपनी गेंडे जैसी खाल है।।
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मैंने कहि जो बातें ऐसी, उन सबसे कभी मज़ाक से।
जाने क्या मतलब निकाले, मेरे कहे गए अलफ़ाज़ से।।
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तबसे लेकर आजतक वो, मुझे जानवर कहने लगे।
अंग बदल दी किसने मेरी, इसी “खोज” में रहने लगे।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित २४/१०/२०१८ )