ख़ुद से दिन रात क्यूँ लड़े कोई।
ख़ुद से दिन रात क्यूँ लड़े कोई।
रोज़ ख़ुद क्यूँ मरे जिए कोई।।
किन मसाइल का हल नहीं मिलता।
ज़िन्दगी तुझसे क्यूँ डरे कोई।।
बख़्त में जो भी है लिखा, होगा।
हौसला कम नहीं करे कोई।।
उसको मंज़िल ही जब नहीं मालूम।
उसके रस्ते पे क्यूँ चले कोई।।
बुतपरस्ती ही गर इबादत है।
फिर क्यूँ मंदिर यहाँ लुटे कोई।।
मुझसे उल्फ़त ही जब नहीं रखता।
फिर मेरी राह क्यूँ तके कोई।।
जब ‘अकेला’ है दिल मुक़द्दस फिर।
पाक दामन न क्यूँ रखे कोई।।
अकेला इलाहाबादी