ख़ुदी रो रहा हूँ रुलाता किसे मै ।
©©©©©©©©ग़ज़ल©©©©©©
ख़ुदी रो रहा हूँ रुलाता किसे मै ।
लगी चोट दिल पर बुलाता किसे मै ।
मुझे खाये जाती है बेरोजगारी ।
ग़रीबी का क़िस्सा सुनाता किसे मै ।
लगा मोल भावों का ताँता यहाँ पर ।
लुटी अस्मिता को लुटाता किसे मै ।
बनी खीर टेढ़ी जहाँ उच्च शिक्षा ।
वहाँ योग्यता निज दिखाता किसे मै ।
चली चाल शातिर ये शिक्षा प्रणाली ।
बना सीधा साधा लुभाता किसे मै ।
हुई फीस के नाम खुब धन उगाही ।
गुणों का ये प्रसाद चढ़ाता किसे मै ।
कि कुर्सी बचाने लगे राजनेता ।
दलालो का अड्डा बताता किसे मैं ।
शहर दर शहर ये भटकता है रकमिश ।
सिस्टम की ख़ामी गिनाता किसे मै ।
✍ रकमिश सुल्तानपुरी