ख़रगोश
मेरी शैशव काल की शेष स्मृतियों में मेरे पड़ोस में मेरी तरह की एक नन्हीं सी लड़की रहती थी जिसका नाम कुसुम था और हम दोनों की उम्र कम होने के कारण किसी स्कूल में दाखिला नहीं मिला था अतः हमें दिनभर खेलने और मटरगश्ती करने के सिवाय कोई कार्य नहीं था । उसके घर के पिछवाड़े किचन गार्डन के एक किनारे दड़बे में कुछ ख़रगोश पले थे और मेरे के घर के पिछवाड़े के किचन गार्डन में एक गाय और उसका बछड़ा पला था । कभी हमलोग बछड़े से खेल लेते थे तो कभी उन खरगोशों से । कभी कभी मैं अपने घर से मटर के छिलके उसके खरगोशों को डाल आता था तो कभी वो सब्जियों के छिलके ला कर मेरे बछड़े को खिलाने आ जाती थी ।अक्सर कोई कोई ख़रगोश उछलता कूदता कुसुम के घर से निकलकर मेरे घर की दूब घास वाले लॉन में आ जाता था और फिर हम दोनों उसे पकड़ने के लिये उसके पीछे भागते थे । खरगोश भी अपनी चालाकी और चपलता से हमारी पकड़ से बच कर लॉन में उछल कूद कर मेंहदी की बाड़ में छुप जाता था फिर हम लोग उसे मिल कर वहीं पकड़ लेते थे । अब जब उसे पकड़ लिया तो उसका करें क्या , सो फिर कहीं वो हमारी गिरफ्त से छूट कर भाग न जाये इसलिए दोंनो मिलकर उसे पूरे जतन से अपने दोंनो हाथों से दबोच कर पकड़े रखते थे और वो नर्म गर्म सफेद मुलायम बालों वाला खरगोश चुपचाप उन मेंहदी की झाड़ियों के नीचे अपने पंजों से खुदी मुलायम मिट्टी पर बिरली दूब घास के ऊपर हम दोनों के बीच मेहंदी , दूब घास और नम मिट्टी की खुशबू में चुपचाप देर तक बैठे बैठे अपनी चमकदार पारदर्शी लाल बिल्लोरी आंखों से टुकुर टुकुर ताकता रहता था । उधर जब हम दोनों अपने अपने घरों में सबको सामने नहीं दिखाई पड़ते थे तो ज़रा सी देर में ही एक दूसरे के घर मे ढूंढ़वाई मच जाती थी और हमारे घर के सभी लोगों के द्वारा हमें पुकारते , तलाशते हुए हम तीनों लॉन में धरे जाते ।
इन्हीं शरारतों और अठखेलियों के बीच जब हम इतने बड़े और शरारती हो गए कि हमारा दाखिला एक स्कूल में करा दिया गया । समय गुज़रता गया और फिर एक दिन कुसुम को भी क्लास के उसी सेक्शन में स्कूल प्रबंधन ने भेज दिया जिसमें मैं पहले से ही पढ़ रहा था । एकदिन संयोग से मेरी डेस्क कुसुम के बराबर में पड़ गयी । किन्ही दो पीरियड्स के बीच के खाली समय में उसने ने मेरी ओर आश्चर्य चकित करदेने देने वाले भाव से देखते हुए डेस्क खोल कर अपना स्कूल बैग बाहर निकाला , मैं भी उत्सुकता से इस प्रतीक्षा में था कि शायद उसमें कहीं खरगोश न साथ ले कर आई हो पर उसने अपना नन्हा सा हाथ बैग की गहराई में कोहनी तक अंदर डाल कर एक छोटी सी कागज़ की पुड़िया निकाली और फिर उसे खोल कर उसमें रखे भूरे से चूर्ण को एक उंगली में उसे चिपकाकर अपनी जीभ बाहर निकाल उसे चाट कर अपनी आंखें मिचमिचाते हुए एक चटखारा लिया और पुड़िया मेरी ओर आगे बढ़ा दी । उसकी देखा देखी मैंने भी एक चुटकी चूरन उसमें से ले कर चाट लिया । उसकी तीव्र , तीक्ष्ण खटास से मेरी चुटिया हिल गयी , पर संग संग , छुप छुप कर भरी कक्षा में उसके साथ चूरन चाटने में मज़ा आ रहा था । कुसुम ने उस चूरन का जो सूत्र उस दिन बताया था वो आज भी धूमिल सा मुझे याद है । वो उसे अपने घर से आमचूर , काला नमक , जीरा आदि कूट पीस कर खुद बनाती थी और स्कूल बैग में छुपा कर लाती थी । उस दिन पूरी छुट्टी के समय उससे अगले दिन फिर यही चूरन ले कर आने के लिये कह कर विदा हुए । अब वो नित्यप्रायः वह चूरन ले कर आती थी और हम दोनों कक्षा में छुप छुप कर उसे चाटा करते थे । मुझे यह आज भी याद है कि किस प्रकार कक्षा में हम दोनों को चयनित कर के 26 जनवरी के उपलक्ष में विशाल भीड़ से घिरे ऊंचे मंच पर नृत्य नाटिका प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया गया था जिसमें मुझको कृष्ण का अभिनय करते हुए अपने हाथों में बांसुरी को अपने होठों पर रख कर त्रिभंगी मुद्रा में मात्र खड़े रहना था तथा
‘ जरा बंसी बजा दो मनमोहन मैं पूजा करने आई हूं ….’
वाले गीत के संगीत पर उसने मेरे चारों ओर गोल गोल कर घूमते मटकते हुए नृत्य प्रस्तुत किया था । धीरे धीरे समय गुज़रता गया और यह सिलसिला कितने दिनों तक चला याद नहीं पर उसके बाद गरमियों की छुट्टियाँ पड़ गयीं और हम दोनों की कक्षा के साथ साथ स्कूल और शहर भी बदल गया ।
कुछ वर्षों के पश्चात गर्मियों की छुट्टियों में मेरा अपने पैतृक निवास स्थान में जाना हुआ जहां एक बार फिर मेरी मुलाकात उससे से हो गई । इस बार हम दोनों की यह यह मुलाकात एक कपड़े प्रेस करने वाले धोबी के ठेले पर हो गई । अब वो भी मेरे जितनी बड़ी हो गई थी और मेरी रेख निकल आई थी और वह भी निखर आई थी । वह अपने हाथों में प्रेस करवाने वाले कपड़ों की एक गठरी लिये हुए थी तथा मैं भी कुछ कपड़े ले कर उसी ठेले पर प्रेस करवाने पहुंचा था । उसे देख कर मैंने उससे पूंछा
‘ तुम कुसुम हो ना ‘
उत्तर में उसने कहा
‘ हां ‘
और फिर यह देखते हुए कि हम दोनों एक दूसरे को ध्यान से देख रहे थे , हम लोग आपस में बिना कुछ कहे सुने अपने अपने कपड़ों के गठ्ठर को प्रेस करने वाले के ठेले पर रख कर विपरीत दिशाओं में एक दूसरे को अनदेखा से कर चल दिये । वयसन्धि की किशोरावस्था के बीच हम दोनों के पुनर्मिलन के बीच प्रेस वाला उसी ख़रगोश की तरह हम दोनों के मध्य में निर्विकार भाव से खड़ा अपना काम करता रहा । बीते समय की बहुत कुछ कहने सुनने की बातें बताने और सुनने से वंचित रह गयीं । अब मुड़ कर देखना और फिर से कुछ कहना हमें गंवारा न हुआ । वहां से जो ज़िन्दगी ने रफ़्तार पकड़ी तो मैं पलट कर पीछे देखना भूल गया । लगा समय को पर लग गये और पढ़ाई की प्रतिस्पर्धाओं , फिर व्यवसायिक शिक्षा के दशक बीतने के साथ ग्रहस्थ आश्रम की ज़ुम्मेदारियों को निभाते हुए कब वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता चला गया पता नहीं चला । इस बीच वो ख़रगोश भी न जानें कहां दुबक कर मेरे से लुकाछिपी करता रहा । कभी जो झलक भर दिखा भी तो मेरे से दूर कहीं बादलों में कुलांचे भरता तो कभी चांद पर बैठा या कहीं चीड़ देवदार से घिरे जंगलों में किसी गोल्फ के मैदान के पार , कभी सामने वाली पानी की टँकी पर तो कभी बकरी के किसी छौने से खेलता मिला ।
उस दिन तो हद हो गई जब इस कोरोना काल में मिले एकाकी खाली समय को काटने के लिए जब मैंने लेखन के लिए अपना मोबाइल उठाया तो वह झट से कूदकर मेरे मोबाइल पर बैठ गया और मेरी चिंतन प्रतिक्रिया को बाधित करने लगा । ये वही नर्म गर्म सफेद मुलायम बालों और लाल चमकदार पारदर्शी बिल्लोरी आंखों वाला ख़रगोश था । मैंने उससे पूंछा आखिर तुम हो कौन और यहां कैसे ? वो बोला मैं तो सदा से हर वख्त तुम्हारे साथ ही था तुम्हें ही अपने जीवन की आपाधापी और चूहा दौड़ में लगे रहने के कारण मेरी ओर देखने और बात करने की फुर्सत नहीं थी । मैं तुम्हारा तुम हूं , तुम्हारा मन हूं और तुमको तुमसे मिलवाने आया हूं । फिर तो हमदोनों मूक भाषा में देर रात तक एक दूसरे से बातें करते रहे । उससे बातें करते करते कब आंख लग गई पता नहीं नहीं चला । सुबह आंख खुली तो वो मेरे आस पास कहीं नहीं दिखा । पर पिछली रात बातों बातों में वो मुझसे वादा कर गया कि मैं तुम्हारे भीतर छुपा हूँ जब बुलाओ गे मैं आ जाऊं गा ।
मित्रों हम सबके भीतर ये ख़रगोश सहमा छुपा बैठा रहता है कभी अपने इस ख़रगोश को बातों की दावत पर आमंत्रित कर के देखना सच कहता हूं बड़ा मज़ा आये गा ।