ख़यालों में मेरे बसा तू ही तू है
ख़यालों में मेरे बसा तू ही तू है
तेरी जुस्तजू है तेरी आरज़ू है
निगाहों से ऐसे मिली हैं निगाहें
बिना लफ़्ज़ बोले हुई गुफ्तगू है
मेरे ज़ह् न में एक तस्वीर सी थी
जो तस्वीर में था वही हू-ब-हू है
बदन तप रहा है बहारों में मेरा
ये गर्मी ए ज़ज़्बात जैसे कि लू है
चला आ रहा जैसे जानिब तू मेरी
नज़र को ये मंज़र दिखे चार सू है
हवाओं में घिरकर फ़क़त रह गया हूँ
हवाओं में तेरे बदन की सी बू है
यही साथ ‘आनन्द’ होना था तेरे
ग़मे यार से हो गया रूबरू है
~ डॉ आनन्द किशोर