क़ैद में रो रहा उजाला है…
उनके चेहरे पे तिल जो काला है
उसने कितनों को मार डाला है।
चांद बेदाग इक हसीं देखा
दुनिया भर से ही वो निराला है।
जिंदगी जिस पे वार दी मैंने
उसने छीना मेरा निवाला है।
रूबरू झूठ जब हुआ सच से
पड़ गया क्यों ज़ुबां पे ताला है।
मुझ पे आकर वही गिरा देखो
मैंने पत्थर भी जो उछाला है।
जानते हैं सभी जहां वाले
दर्द को कैसे मैंने पाला है।
मेरी दुनिया उजाड़ दी उसने
ज़िन्दगी भर जिसे संभाला है।
धूल पैरों से माँ की ले लेना
वो ही गिरज़ा वही शिवाला है।
तीरगी जीत ही गई आख़िर
क़ैद में रो रहा उजाला है।
पंकज शर्मा “परिंदा”