क़सक
जिस्म पे बने नश्तरौं के ज़ख्म वक्त गुजरते भरते हैं ।
पर बनते वो ज़ख्म जो दिलों पर गुजरते वक्त गहराते हैं ।
सर्द हवाओं का जुंबिशे एहसासे असर रफ़्ता रफ़्ता स़म्त होता जाता है ।
पर सर्द आहों का लर्जिशे अन्दाज़
होते लबरेज़ फ़ुगाँ बन जाता है।
उठता जो दर्द किसी कोने से बढ़ता ठहरता कम से कमतर होके जाता रहता है।
उठती जो टीस है दिल में पल दर पल बढ़ती है लगती किये ज़ज्ब हर शै को बनती क़सक तो चुभ के रह जाती है।
रहता था मुझे कभी खौ़फ मौत के सायों से ।
अब तो मुज्जसिमे मौत से भी कोई डर नही लगता।
था कभी ज़िक्रे कयामत असरकार।
अब तो क़हर गिरने पर भी असर नहीं होता ।
मिलती थी मसर्र्त कभी अपनी खुशियां औरौ पे लुटाके ।
अब तो दूसरों का ग़म बाँटकर भी सकूँ हासिल नही होता।
देखकर अपना अक्स आइने में सँवरता था कभी ।
अब तो खुद को मिटाकर भी तक़दीर सँव़रती नही।