हक़ीक़त
दोपहर से दो घंटे पहले ही
गिरा मै असहाय औंधेमुह
बेसुध देह तड़पती रही
दीप्त आँखों की घटती रही
सपनों की चीखती हक़ीक़त मे
.
मिलने आया था मै जिससे
उसका पता बदल गया है
हाँ पलक वही है थोड़ी तिरछी
पर आंखो मे वो शरारत नहीं है
नहीं रही अब चेतना हिम्मत मे
.
कितने सज्जन हो गए है
उसके पायल के छोटे मूँगे
और चूड़ी की बाहरी दीवारें
याद है मुझे गाँव मे जब
बज उठते थे कानो की खोज मे
.
क्या मै तुम्हें जानता हूँ ?
क्या तुम जानती हो मुझे ?
फिर क्यूँ खड़े है ऐसे कि जैसे
लगा हो न्याय के लिए दरबार
और हाथ मे लिए तलवार
आयेगा कोई चलाने को गर्दन मे
.
© —- सत्येंद्र कुमार