हो सके तो मेरे मन की
हो सके तो मेरे मन की तू बात मत पूछ
कितने सहें है मैंने यहाँ आघात मत पूछ
माना की मुसीबत अब छंट गई मेरे मित्र
दुर्घटना में कत्ल के अब हालात मत पूछ
क्यों नहीं पहुँचें मेरे घर लिखे पत्र कभी
या रही नहीं मेरी कोई औकात मत पूछ
यहाँ तो कागज़ भी जंगल खा जाते है
मेरी जंगलो वाली बीती वो रात मत पूछ
ख्वाबो के मंजर में रोज सच्चाई मरती
जिस्म से बगावत की मुलाकत मत पूछ
बेजुबाँ खामोशियाँ चिल्लाने लगी अब
अशोक इंसान है उसकी तू जात मत पूछ
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली