होली
होली के हुड़दंग में ,अपने कवि कलवालाल
थे भंग चढ़ाये घूमते, मुंह पर भले गुलाल
थोड़ी सी ही देर में, भंग की उठी तरंग
सभी पड़ोसी हंस रहे, देख के उनके ढंग
गधा जो दीखा खड़ा पास में, गले से उसके लिपटे
बड़े दिनों में आया भैया, मुझसे रहा क्यों छिपके
भ्रातृ प्रेम में विह्वल हो, गर्दभ ने मारी लात
कवि महोदय गिर गए, उड़ गए सारे दांत
उड़ गए सारे दांत, टूट गया चश्मा उनका
चंद क्षणों में दूर हो गया, नशा भंग का
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