होली
सुनहरा रंग उपवन में, बसंती रुप छाया है।
वसंती छा गया मौसम, रुपहला रुप पाया है।
जहां कोयल पपीहा मोर नाचे नित्य सुध बुध खो,
वनों मे सुंदरी भटके, निखर यूं रुप आया है।
डा. प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, प्रेम
स्वरचित व मौलिक रचना।
जहाँ सुरभित धरा हो पावनी होली वहाँ होगी।
यहाँ रंगों भरा त्यौहार होली तो यहाँ होगी।
महकती है फसल धनिया, खिले हैं फूल सरसों के,
नया संवत करें प्रारंभ, होली यह जहां होगी।
अगर होली यहाँ त्यौहार तो पकवान बनता है।
करे रंगों भरी बौछार पर नादान बनता है।
अबीरों औ गुलालों की चमक रंगीन होली में,
अगर नैना करें व्यवहार, तो अरमान बनता है।
डा. प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, प्रेम