होली
[ गीतिका ]
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आधार छंद -द्विगुणित चौपाई
मात्राएँ – 32
चरणान्त -22
समान्त- अर
पदान्त- से
[गीतिका]
होली का त्योहार निराला,रंग बरसता है अंबर से।
इन्द्रधनुष धरती पर उतरा,है आज गगन के अंतर से।
लाल गुलाबी धरा सजी है रजत कलश में रंग घुले हैं,
दसों दिशा आनंद भरे हैं, फागुन बौराया मंतर से।
रुनझुन-रुनझुन घुँघरू बाँधे, ढ़ोल चंग मंजीरा बाजे,
धो कर सारे कलुष भावना, गले मिलेगे सब सुंदर से।
मुट्ठी में भर कर अबीर ये, लेकर हाथों में पिचकारी,
मस्ती में मस्तों की टोली,निकल पड़े घर के अंदर से।
खाये गुझिया और मिठाई,हिल-मिल सबने मौज मनाई.
सखी सहेली यार पुराने,सब ही दिखते हैं बंदर से।
भांति-भांति के रंग घुले है,लाल गुलाबी अंग सजे हैं,
भींगे होठों पे रस छलके,मन भी हो गए सिकंदर से।
लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली