होली पर्व उत्सव
ऐतिहासिक विश्व प्रसिद्ध त्योहार होली जिसे अनेक उपनाम होलिकी, होलिका, धुलंडी, लट्ठमार होली, रंगोंत्सव, बसंतोत्सव इत्यादि नामों से संबोधित किया जाता है। हिंदुओं का प्रमुख त्यौहारों में से एक यह पर्व अति प्राचीन हैं, होली त्यौहार का प्राचीनतम उल्लेख नारद पुराण एवं भविष्य पुराण में मिलता है, विध्य क्षेत्र रायगढ़ स्थान पर स्थित ईसा तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली पर्व का उल्लेख किया गया है।
हिंदू ही नहीं अपितु मुस्लिम भी यह पर्व मनाते थे, मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपनी ऐतिहासिक यात्रा स्मरण में होलिकोत्सव वर्णन किया है, अकबर जोधा एवं शाहजहां नूरजहां मुस्लिम राज वंश परंपरा में होली मनाते थे, अलवर संग्रहालय के एक चित्र में शाहजंहा नूरजहां को होली खेलते हुए दिखाया गया है, नव संवत का प्रारंभ तथा वसंता गमन का प्रतीक पर्व होली है, यह पर्व रंग गुलाल अबीर, जल कटुत्याग का महा पर्व है, होली पर्व में व्यक्ति पुरानी कटुता त्याग कर, होली पर्व दिन रंग अबीर से गले मिलकर नए सिरे से मिल खुशी से झूम उठते हैं।
यह फागुन मास पूर्णिमा से नए वर्ष आरंभ तथा वसंत आगमन का प्रतीक चैत्र प्रति पदा के दिन टोली में व्यक्ति ढोल मजीरा हरमुनिया लेकर रंग के साथ सभी के घर पर जाकर फाल्गुन गीत गारी गाते हैं, दोपहर बाद स्नान कर नए वस्त्र धारण कर अबीर के साथ एक दूसरे के गले मिलते हैं, छोटे बड़ों का पैर छू आशीर्वाद तथा प्यार दुलार पाते, आर्यावर्त के सभी प्रांतों में ही नहीं संपूर्ण विश्व में भारत नेपाल म्यामार श्रीलंका जहां हिंदू रहते हैं सभी जगह बड़ी धूमधाम से होली पर्व उत्सव मनाया जाता है।
होली पर्व का आनंद ग्रामीण आंचल में फागुन चढ़ते वसंत पंचमी के शुभ अवसर से ही मिलने लगता है, रात्रि ढोल मजीरा हरमुनिया के साथ चौपाल पर व्यक्ति बड़ी धूम धाम से संगीत गायन मध्य रात्रि तक पूरे एक माह सम्पूर्ण फागुन भर गाया जाता है, अनेक महत्वपूर्ण गीत गाए जाते हैं, जिनमें से कुछ निम्न है
१.रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे
२.राजा जनक जी के बाग बगीचा, बाग बगीचा हो
३.होली में बाबा देवर लागे, होली भर, बाबा देवर लागे
४.होली खेले रघुवीरा अवध में, होली खेरत रघुवीरा
५.बरसाने में खेले, मथुरा में खेले, राधे कृष्ण संग होरी रे
इत्यादि पारंपरिक भारतीय लोक संगीत गायन लय बध्य कर गाए जाते है, यह संगीत सुर चउ मुख शोर कर कहती है, कि भारतीय संस्कृति बाखर में नव वर्ष आगमन पर है, वसंत अटखेलिया खेल रही है, पुरवा की हवाएं, जौ, गेहूं की बलिया सुनहरे रंगो में इतरा इट्ठला रही है।
आम्र वृक्ष पर लगे बौर के सुगंध चारों तरफ वातावरण में प्रसारित हो अपने आकर्षण के आगोश में व्यक्तियों नारियों बच्चों को अपनी तरफ खींच लेती है, स्त्रियां अपने स्वामी की प्रतीक्षा में उनके न आने पर फागुन बसंत से अपनी विरह व्यथा की शिकायत तक करती हैं जिसका वर्णन अनेक मार्मिक कवि अपने सौंदर्य में बारहमासा नागमती वियोग में रतन सिंह की विवाहित पत्नी, मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत में विस्तृत वर्णन मिलता है…!
फागुन पवन झंकोरे बहा। चौगुन सीउ जाई किमि सहा।।
मैंने भी एक विरह गीत लिखा था
फाल्गुन महिनवा में धली रेलगड़िया
पतझड़ महीना नई आश लेकर आईल
अमवा बउर देखी मन हर्षाईल
गोदिया पुष्प खिला दी अंगनईया
फागुन महीना में धली रेल गाड़ियां
ग्रामीण आंचल की होली अंतर मन तृष्णा का दमन कर ही देती है, सत्य घटनाओं से परिचित कराते हुए चलते हैं, अपने ग्रामीण आंचल सेवटा आजमगढ़ जहां होली पर्व बसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है, फाल्गुन फगुआ गीत से प्रधान बाबा स्वर्गीय राम प्रसाद पांडेय जी द्वारा प्रचलित ग्राम्यदेव डीह बाबा के यहां होलिका दहन के दिन साकला हवन प्रारंभ किया जाता है, जिसमें देसी घी तेल धूप अगरबत्ती पूजा सामग्री लगती है, विधि विधान से पुरोहित श्री संत प्रसाद चौबे पंडित जी द्वारा प्रारंभ होता है, तद पश्चात होलिका दहन बनरहिया पर किया जाता है, जिसमें परम्परा अनुसार सभी घर से नीम की डाली, आम पल्लव, कुश, तिसी, जौ, होलिका दहन ज्वाला में जला कर, अपने घर के छज्जे में खोंस कर रखते हैं, जिससे घर में सुख समृद्धि संपूर्ण वर्ष बना रहे।
होलिका दहन पर वहां शांति से दो मिनट हाथ जोड़कर मैंने यह महसूस किया है, कि जलती हुई अग्नि में सभी पदार्थ राख हो जाते हैं, वैसे ही अंतर्मन की द्वेषता अग्नि ज्वाला ताप से तन मन आत्मा से बोध करा द्वेषता, घृणा को अपने हवन कुंड में अपने ज्वाला से जलाकर मन को हेम की तरह तपाकर एक सुंदर पवित्र अंकुरित आत्मा का उदय करा ही देता है।
अगले दिन प्रात: ढोल झाल के साथ व्यक्ति समूह में सभी घर पर सबको रंग लगाते हैं, गीत गारी गाते हैं, दोपहर बाद शाम में गीत मंडली सभी प्रमुख प्रमुख घर पर गीत गाते हैं, सभी व्यक्ति छोटे बड़े बूढ़े लोग जाते हैं चाय नाश्ता गुझिया मिठाइयां बांटती हैं, महिलाएं भी किसी से पीछे नहीं रहती है, इस शुभ अवसर पर छोटे बच्चों को स्नेह प्रेम से रंगती है, मानों उनके अंतर मन में इंद्र धनुष से सातों रंग उमड़ आए हो, सम्पूर्ण प्रकृति प्रेम प्रसारित कर देती है, यह अहो भाग्य हमारे हैं कि मैं सेवटा के पावन भूमि पर आप जैसी माताओं बहनों का स्प्रेम स्नेह प्राप्त किया हूं, मैं बहुत ही भाग्यशाली हूं, कि आप सभी प्रकृति देवी के आंचल परिवेश में बडा हुआ हूं, आप सभी माताएं बहनें इसी प्रकार सदैव स्नेह प्रेम आशीर्वाद बनाए रखे, चाय नाश्ता गुझिया इत्यादि पकवान महिलाएं रसोई में बना कर बाहर उन सभी अतिथियों यानि सम्पूर्ण ग्राम सदस्य जो द्वार पर आते है उन्हे जल पान कराया जाता है, सब सप्रेम से गले मिलते है, धूमधाम से संगीत वादन प्रारंभ करते है, राजा जनकी जी के बाग बगीचा हो राजा जनक जी के बाग बगीचा, होली खेलत रघुवीरा अवध में होरी खेलत रघुवीरा मधुर ध्वनि से पंडाल झूम उठता है, सुंदर अप्रतिम सौंदर्य पाने हेतु व्यक्ति देवी देवता भी तरसते हैं, ऐसा मनोरम आकर्षण और उत्साह उमंग मधुर संगीत ऐसा ऐश्वर्य आनंद तो कल्पना लोक के इंद्रलोक में भी नहीं प्राप्त होगा, ऐसा मनोरम आकर्षण हरसोत्साह, मधुरम संगीत जो उल्लास उमंग हर्ष आनंद की प्राप्ति होती है, मानो त्रेता द्वापर युग में अयोध्या मथुरा काशी वृंदावन में घूम मची हो, इसी प्रकार घूमधाम से सम्पूर्ण भारत एवम् विश्व में होली पर्व उत्सव मनाया जाता है, इसकी अलौकिक कथाएं शक्तियां काफ़ी प्रचलित है, होलीकी और प्रहलाद की कहानी, ऐसे ऐश्वर्य आनंद हेतु देवी देवता, देव, यक्ष, किन्नर, सुर, असुर आदि तरसते है, ऐसा है हमारा पर्व देश भारत जिसपर हमे गर्व है, सदैव रहेगा।
समय चक्र का पहिया और आधुनिकता ने मानो होली पर्व के रंग धूमिल कर दिया है, द्वेषता, कटुता विष घय कर हृदय में प्रविष्ट हो गया है, जो मानव के व्यक्तित्व आदि पर घातक बन गया है, जो इस पर्व उत्सव पर कलंक का दाग लगा दिया है, अब अबीर गुलाल नहीं मानो खून की होली खेलने को आतुर से हैं, ऐसे निष्ठुर द्वेषता, कटुता, घृणा इस कदर बढ़ सी गई है, जैसे अर्णव की लहरें अति वेग से तट तरफ शीला तोड़ने हेतु आतुर होती है, अपितु शीला से टकरा कर पुनः अपने गर्त में समाहित हो जाती है, इसी प्रकार व्यक्ति भी मदमस्त पागल हाथी के समान अपना अस्तित्व खो देने हेतु पागल के समान उतावलापन ले इधर-उधर भागता है, अपने को सबसे अधिक पर जीवी प्रबुद्ध वर्ग का सर्व श्रेष्ठ समझता है, ऐसी विडंबना है, क्या यह विडंबना सभी पर्व पर कलंक का यथार्थ है, इसे स्वीकार करना भी ऐसे निर्दयी अभिमानी विषुदियो हेतु, विष रस है, इसे यह स्वीकार ही नहीं सकते, कि मैं ही इस यथार्थ चित्रण का प्रारंभिक अवतरित नायक हूं, कुछ ज्यादा कहना भी अनुचित ही है।
उचित विरोध भी अनुचित लगे तो, बढ़ी मीमांसा प्राणी की
कुछ ज्यादा ना करते हुए अपने कलम काव्य धारा को विराम देता हूं, आप सभी से विनम्र अनुरोध है, कि इस होली के हवन कुंड में अपने गलानी द्वेषता को भस्म कर एक नए अवतार में अपने परिशुद्ध आत्म अंकुर में अनमोल वृक्ष बन, संपूर्ण आर्यावर्त में सुगंधित, ऐश्वर्या, प्रतिष्ठित, प्रभुता का विस्तार करें।
धन्यवाद…!