होली के गुलाल में अब वो रंग कहाँ
होली के गुलाल में अब वो रंग कहाँ,
नकली चेहरों पर जो रंगों को लगाते हो।
तुम्हारे कारनामों को उजागर ना कर दे,
रंगों से विभत्स चेहरों को तुम छुपाते हो।
होली के गीतों में अब वो राग कहाँ,
फागुन में उड़ते गुलाल वो फाग कहाँ।
होली मनाकर सिर्फ रस्मों को निभाते हैं,
होलिका जलाते हैं पर वो आग कहाँ।
चेहरे हैं दागदार जिस पर रंग हम लगाते हैं,
रंगों की आड़ में असलियत को छुपाते हैं।
हर घर में अब हिरण्यकश्यप छुपा बैठा है,
होलिका छोड़ केवल प्रह्लाद को जलाते हैं।
होली हम मनाते हैं पर रीति बदल गई है,
मिलते हैं गले सबसे पर प्रीति बदल गई है।
अब तो हर चेहरा नक़ाबपोश सा लगता है,
नियत ठीक नहीं क्योंकि नीति बदल गई है।
आधुनिक होली का स्वरूप बदल गया है,
इंसानियत का अब तो रूप बदल गया है।
दिल को ठंडक पहुँचाये अब वो भँग कहाँ,
टोलियों में झूमते हुए अब मस्त मलंग कहाँ।
सच, होली के गुलाल में अब वो रंग कहाँ।
जी हाँ, होली के गुलाल में अब वो रंग कहाँ।
?? मधुकर ??
(स्वरचित रचना, सर्वाधिकार©® सुरक्षित)
अनिल प्रसाद सिन्हा ‘मधुकर’
ट्यूब्स कॉलोनी बारीडीह,
जमशेदपुर, झारखण्ड।
e-mail: anilpd123@gmail.com