होली आनन्द रूप
राग की बात,
तिमिर में कब हो,
जो अज्ञान का ।।1।।
प्रतीक है ये,
होली अज्ञान पर,
जय ज्ञान की।।2।।
ब्रह्म ने भी है,
होली आनन्द रूप,
खेली निकुंज।।3।।
आसान नहीं,
भाव निकुंज का भी,
बिना नाम के।।4।।
देह अधूरी,
प्रेम बिना राम के,
आत्मा में हैं।।5।।
बुद्धि भी वही,
मन से परेय है,
परमात्मा है।।6।।
जीवन भी है,
मृत्यु भी वही है ये,
समझ ले तू।।7।।
परम प्रभु,
न औरत-आदमी,
सत्य है वह ।।8।।
धरा भी वह,
गगन समीर भी,
हुताशन भी।।9।।
भूल कर तू,
सब कुछ सदैव,
भज राम को।।10।।
परिणाम भी,
आयेगा सुखद यूँ,
हनुमान रूप।।11।।
होली हीन है,
कृष्ण संग राधिका,
चिंतन नहीं।।12।।
©अभिषेक पाराशर