होलिका दहन या नारी अपमान ?
आज खेलते हैं सब होली,
करते हैं सब हंसी ठिठोली,
भरके मारते हैं पिचकारी,
भीगे चाहे दुनियां सारी।
हुरियारों में भी होड मची है,
कौन किसे कितना रंग डाले ?
मले अबीर मात्र गालों पर,
या फिर पोर पोर रंग डाले,
बजरंगी की सेना सदृश,
घूमें सभी बनाकर टोली,
भांति भांति के व्यंजनो से,
सोंधी सी खुशबू आती है,
पाकर इनकी झलक मात्र से,
रसना, रसमय हो जाती है,
भरे हुए हैं पान पात्र में,
पान, इलाइची गुलकंद वाली,
रहे मुबारक सदां सभी को,
होली का यह उत्सव प्यारा,
आप सभी के बनें हितैषी,
सभी आपका बनें सहारा,
जीवन की आपाधापी में,
रहें सभी बनकर हमजोली ।
किन्तु, कसक है मन में भारी,
सदां छली जाती क्यों नारी ?
क्यों बलिवेदी पर उसकी ही,
बलि, सदां चढाई जाती है ?
होलिका बनाकर उसमें ही,
क्यों आग लगाई जाती है ?
पहले भी उसे अपने देश में,
भोग्या समझा जाता था,
देकर के नाम अप्सरा का,
महफ़िल में नचाया जाता था,
काट के उसके नाक कान उसे,
कुरूप बनाया जाता था,
करता था पाप कोई लेकिन,
पत्थर की वह बन जाती थी,
गर्भावस्था में ही अभागिन,
जंगल में छोड दी जाती थी,
बिन इच्छा ही स्वयंवरो की,
शोभा वह बन जाती थी,
जीती वस्तु मानकर वह,
भाईयों में बांट दी जाती थी,
और जुए में पति द्वारा ही,
रख दांव पे हारी जाती थी,
भरी सभा में उस अबला का,
चीर हरण हो जाता था,
पांचो पतियों में से कोई भी,
ना उसे बचाने आता था,
आज भी लगभग कमोबेश,
पुनरावृति इसकी होती है,
नारी पहले भी रोती थी,
वह आज भी रोती रहती है,
सुनो समाज के पहरेदारो,
तुम्हीं तनिक विचार करो,
विकृत मानसिकता वाली सोच से,
अब तो नारी को मुक्त करो,
दे दो यह संदेश सभी को,
नारी अब अबला न रही,
वह काट रही है अपनी बेडियां,
जिनमें अब तक जकडी ही रही,
सोचो, नारियां कुपित हुई तो,
मानव का हाल क्या होगा ?
पुत्र न पैदा होगा जग में,
पिता नहीं बन पायेगा,
तरसेगा साथी बनने को,
पर साथी ना मिल पायेगा,
अतः गुजारिश आज सभी से,
नारी को अपमानित न करें,
उत्सव को उत्सव रहने दें,
होलिका दहन को बंद करें।
क्यों न, किसी ने इस खातिर,
अबतक,अपनी जुबान खोली ?
✍ – सुनील सुमन