होता वही ख़ुदा को जो होता कुबूल है
बेकार सोचना है कलपना फ़िज़ूल है
होता वही ख़ुदा को जो होता कुबूल है
दाना अनाज का ये कमाते हैं इस तरह
मेहनतकशों का रिज़्क़ सदा बा उसूल है
फितरत तो खोलती है हक़ीक़त निहाँ है जो
चेहरे पे आदमी के मुखौटा फ़िज़ूल है
देगा जवाब कौन कोई सामने नहीं
टूटा है दिल किसी का किसी की तो भूल है
ज़ज़्बा न दिल में प्यार का ज़रदार के कोई
आँखों में दौलतों की पड़ी सिर्फ़ धूल है
बेशक़ हो जश्ने-ज़ीस्त या बज़्मे-तरब कोई
हंसते नहीं हैं होंठ अगर दिल मलूल है
कैसे न सिरफिरा भी कहें लोग सब उसे
लाने गया जो फूल वो लाया बबूल है
मिल जाए ज़िन्दगी में मुहब्बत किसी की गर
‘आनन्द’ फिल्म ज़ीस्त की पैसा वसूल है
शब्दार्थ:- रिज़्क़ = food, ज़रदार = मालदार/धनवान, तरब = joy/cheer, मलूल = sad
– डॉ आनन्द किशोर