होठों की लाली बन गाऊँ
पाकर जिसको वर्षों की,
बुझ जाती मेरी प्यास।
था खा़ब संजोए आँखों में,
और मन में था विश्वास।
होती ऐसी प्राणप्रिया,
और मैं उसका भरतार।
जाने कब किस पूण्य कर्म पे,
खुश हो गए करतार।
उम्र बढ़ाने को मेरी वो,
करती है उपवास।
मुझको ही भगवान बना के,
खुद को कहती है दास।
तप्त धूप में छांव जो बनकर,
देती है मुझको शीतलता।
अमिय सदा निज होठ सजा के,
मन मे रखती है निर्मलता।
जीवन के कलुषित बेला में,
देती है उत्साह।
खुद को रखती वज्र बनाकर,
भरती ना कभी आह।
अब तो है बस चाह हमारी,
होठों की लाली बन गाऊँँ।
पाया है इस जनम मे तुमको,
जनम जनम तुमको ही पाऊँँ।
जटाशंकर”जटा”
०९-०५-२०२०
शादी की सालगिरह पर प्राणप्रिया को समर्पित