हॉर्न धीरे से बजा रे पगले देश मेरा सोता है
हॉर्न धीरे से बजा पगले देश मेरा चैन की नींद सोता है
मधुर सुहानी नींद को तू क्यों पगले आकर खोता है
आंच सी सर्दी में आ जाती है अब रोज अखबार से
लिखने वाले भी पालतू बन गये कुछ सहित्यकार से
अब तो सिर्फ राग दरबारी में तमाशा रहता है जारी
गुलशन भी लहूलुहान हो गया गुलाबो के खार से
नुऱा कुश्ती हुई सियासत काले धंधों के व्यापार से
तू आ क्यों अपने आटो में पुण्य कमाने को ढोता है
हॉर्न धीरे से बजा………..
यहाँ लिखने वालों के एक हाथ में कलम एक में दातुन
छीन देते निवांला संसद वाले अंधे इनके बने है कानून
ह्र्दयागन इनका सरोबार हुआ छल कपट प्रपंचो से
आदमी का कद तराश रहे सिरफिरे कुछ अफलातून
क्यों लुटती यमुना गंगा में जा कर इनके मैल धोता है
हॉर्न धीरे से बजा………….
सोया देश तो व्यर्थ सब तरह की यहाँ पर योजनाएं
पक्षु पक्षी मानव धरा सब के विकास की कल्पनाएं
मैखाने कैदखाने कत्लगाहों असत्य आतँक का अंत
यहाँ तो बस युद्ध झगड़े भय बेरोजगारी की व्यथाएँ
क्यों आ कर तू बबूल की जगह आम के बीज़ बोता है
हॉर्न धीरे से बजा पगले देश मेरा चैन की नींद सोता है
जा जाकर कही और बजा चैन से हमको तू सोने दे
अपने कंधों पर अपने पाप का सलीब हमको ढोने दे
बजरबटु हुई इस दुनियां में आ तू रंगीन सपनें न दिखा
चैन से सोया हुआ देश मेरा चैन इसका तू मत खोने दे
क्या आकर के कोई मजबूर लाचार भी दुःखड़े रोता है
हॉर्न धीरे से बजा पगले देश मेरा चैन की नींद सोता है
अशोक सपड़ा हमदर्द