है तिरोहित भोर आखिर और कितनी दूर जाना??
है तिरोहित भोर आखिर और कितनी दूर जाना??
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सम्पदा की चाह उर में
सभ्यता से हो विलग हम,
चल पड़े किस ओर आखिर
और कितनी दूर जाना।
नयन मूंँदे चल रहे बस
सुधि नहीं संतान की अब,
है तिरोहित भोर आखिर
और कितनी दूर जाना?
लोभ लिप्सा से ग्रसित मन हो विमुख कर्तव्य पथ से,
ऐषणा सुख सम्पदा की पाल चलता जा रहा है।
नित विलासित भावनाएँ दे रहीं केवल छलावा,
और मनु मन मुग्ध होकर नित्य छलता जा रहा है।
हो रहा परिवेश दूषित
और आगत भी भ्रमित है,
बह रहे दृग लोर आखिर
और कितनी दूर जाना।
नयन मूंँदे चल रहे बस
सुधि नहीं संतान की अब,
है तिरोहित भोर आखिर
और कितनी दूर जाना?
पश्चिमी परिवेश से कलुषित लगे निज भावनाएंँ,
त्याग कर शुचि रीति निर्मल स्वाँग मेंं संलिप्त होना।
सत्य ही जड़ से पृथक होकर नहीं पादप पनपते,
पर्ण का निज साख से होकर पृथक फिर वर्ण खोना।
दुर्गुणों का मेघ करता
नित्य ही घनघोर गर्जन,
व्याप्त चहुँदिस शोर आखिर
और कितनी दूर जाना।
नयन मूंँदे चल रहे बस
सुधि नहीं संतान की अब,
है तिरोहित भोर आखिर
और कितनी दूर जाना?
तोड़कर सुरभोग का घट ढूँढते हर दिन हलाहल,
भूल निज दायित्व को संलिप्त हैं धन जोड़ने में।
आस में मधुमास के हम, आज पतझड़ से मुखातिब,
आचरण से मोड़कर मुख लिप्त हैं धन जोड़ने में।
लोभ में चिन्तन तिरोहित
दिग्भ्रमित दिखने लगा कल
है प्रलोभित दौर आखिर
और कितनी दूर जाना।
नयन मूंँदे चल रहे बस
सुधि नहीं संतान की अब,
है तिरोहित भोर आखिर
और कितनी दूर जाना?
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण बिहार