है गुज़ारिश बख्श दो तक़दीर को..!
म्यान में ही, रहने दो, शमशीर को,
है गुज़ारिश बख्श दो तक़दीर को..!
एक हद तक, ही रहीं बस, जुम्बिशें,
कब तलक शर्म ओ हया की बंदिशें
ज़ुल्म कर मुझ पर मग़र खामोश हूँ
क़ायदे कानून, या फिर साज़िशें,
हक़ मुझे भी मुस्कुराने का मिले,
थक चुकी हूँ झेलते इस पीर को,
है गुज़ारिश बख्श दो तक़दीर को..!
हद ज़मीं की देख ली है दौड़कर,
आसमां को आ गयीं हूँ चूमकर,
नाप ली हैं तह समंदर की सभी,
कब तलक मुझको रखोगे क़ैद कर,
और कितने इम्तिहां बाकी अभी,
खोल भी दो अब तो इस जंजीर को,
है गुज़ारिश बख्श दो तक़दीर को..!
पंकज शर्मा “परिंदा”