है अब मनुजता कहाँ?
चहुँओर नि:स्तब्धता
और नीरवता है
परंतु फिर भी चीरती
है एक आवाज
सन्नाटे के वक्ष को
रुदन कर रहा है मौन
क्यूँ फिर भी
कहीं से सिसकियाँ
क्यूँ हृदय का बेधन
कर रही हैं
शांत सरोवर का?
चुपचाप, बिना किसी आहट के
चाँदनी ने
नहला दिया है
यूँ तो श्वेकांतक मणि को
मगर एक सरसराहट
सूक्ष्म सी आई तो है
अरे! कौन है वो
जो श्वेत चाँदनी में
स्याह चट्टान सी
दृष्टिगत है
मौनता की चादर को ओढे़
तडाग के कूल पर
चेहरा छुपाए
सुबक रही है
अरी! चिंतिता…
स्याह निशा की
मौनता को भंग तू
क्यूँ कर रही
कौन सी विपदा है ऐसी
नितांत एकाकी
निर्जन की नीरवता हर रही
बोल तो कुछ छोड़कर
हिचकियाँ रुदन की
कौन से कष्ट का
उपभोग अ अभागन!
कर रही
हे भन्ते! पूछता क्या है तू
विपदा मेरी
मैं मनुजता हूँ मनुज की
जो हूँ आहें भर रही
जी रही हूँ निर्वासित जीवन
मैं बहुर्काल से
छोड़कर मानुष मुझे
हाय! एकाकी कर गया
निर्लज्ज होकर खुद को
फिर भी मनु संतति कह रहा
नीचता की लाँघ रेखाएँ
स्वयं पर है अघारता
छल कपट पाखंड को ही
संगी अपना मानता
हूँ विकल अब नर में नरता नहीं
पाप-पुण्य की जरा भी
चिंता मनुज अब करता नहीं
हे भद्रे! बोल तू ही
क्या कहीं ठिकाना अब मेरा!
बोल अब संतुलित होकर
क्या रुदन है व्यर्थ मेरा
कर्म ऐसा अद्य मानव का
असुर भी पानी भरे
निम्नतर पशु से भी
व्यवहार अब मानव करे
हा! कलुषित हो चुका है
हृदय आज इस दुष्ट का
हूँ शर्म से गढी़ मैं
बैठी मुख को हूँ छिपाय
मात्र रुदन के अतिरिक्त
बोल क्या है कुछ उपाय!
सोनू हंस