हे वसुंधरा ! हम तेरे ऋणी हैं …
हे वसुंधरा ! हे माता !
तुम हमें कितना देती हो ,
मगर बदले में कुछ नहीं लेती हो।
तुम कितनी महान,
तुम हमें देती हो ज़मीन ,
जिसपर प्रारंभ करते हैं हम ।
अपनी जीवन-यात्रा।
तुमने ही दिया हमें आधार ,
आत्म-विश्वास ,आत्म-निर्भरता ,
तुमने ही हमें सिखलाई ,
तुम्ही हमारी प्रथम गुरु हो।
तुमने दिया हमें आकाश ,
हमने अपने होंसलों ,उम्मीदों को
पंख लगाये ,
परवाज़ बनकर उड़ चला मन ,
अपने क्षितिज को पाने ।
यह निडरता ,यह साहस ,
तुम्हारी ही तो देन है।
क्योंकि तुम हमारा विश्वास हो।
तुमने दिए हमें अक्षुण जल-संसाधन ,
कुएं ,तालाब , नदियां व् सागर ,
जल रूप में मिला जीवन हमें ,
तरलता ,सघनता ,चंचलता ,
मनुष्य ह्रदय ने पाई तुमसे ।
तुम हमारी प्रेरणा हो।
तुमने दिए हमें विभिन्न
वनस्पतियों के भंडार ,
पेड़ -पौधे , वन ,
जिनसे पाया हमने ,भोजन व्
अौषधियाँ बेशुमार।
कई तरह के स्वादों से परिचय करवाया तुमने।
तुम अन्नपूर्णा हो.
तुमने दी हमें पवन ,
चंचल, शीतल ,निर्मल ,
श्वासों को मिला हमारे सम्बल।
माता ! तुम हमारी ही नहीं ,
सभी प्राणी -जगत की तुम प्राण हो.
तुमने ही दिए हमें चाँद और सूरज ,
तुम्हारी यह दो उज्जवल आँखें ,
शीतलता व् ऊर्जा समरसता से ,
हम प्राणियों को प्राप्त होती है।
निष्पक्षता का पाठ तुम हमें पद्धति हो।
तुमने हमें दिए पहाड़
जो है सशक्तता व् सुरक्षा की पहचान।
और दिए तुमने विभिन्न रंगीले मौसम ,
वर्षा, वसंत, शीत , या ग्रीष्म ,
हर हाल में जीने की कला,
..तुम हमें सिखाती हो।
माता ! हमपर है तुम्हारे कितने उपकार!,
भूल भी सकता है कैसे यह संसार ,
.निस्वार्थ भाव से ,स्वेच्छा से , तुम सर्वस्व लुटाती हो
और बदले में हमसे कुछ भी नहीं , मांगती हो।
हे! माता ! हम अति-निकृष्ट प्राणी ,
तुम्हें दे भी क्या सकते हैं.?
तुम हम मनुष्यों व् अन्य प्राणियों का बोझ भी उठती हो ।
तुम्हारी सज्जनता और तुम्हारी सहनशीलता का
कोई जवाब नहीं।
हे जननी ! हम तुम्हारे लिए कर भी क्या सकते हैं।
हम तो स्वयं तुमपर निर्भर है।
मगर तेरे चरणो में अपना जीवन अर्पण तो कर सकते हैं. .
हम तो ऋणी हैं तुम्हारे ,
सौ जनम लेकर भी यह ऋण नहीं
चूका नहीं सकते।
भला माता का ऋण कोई चुका सकता है।
हे वसुन्धरे ! तुम हमारी माता हो.