हे प्रिये
परी सी सुन्दर चाँद सी शीतल,
सौम्य चंचल अप्सरा हो।
मेरे मन की एक पहेली,
सरल साश्वत सहचरा हो।
कल्पना हो स्वप्न की सी,
भोर का कोहरा घना हो।
जो भी हो जैसी भी हो तुम,
मेरे मन की अक्सरा हो।
मौत से भी जो न सिमटे,
वो ह्रदय का दायरा हो।
मैं जो टूटा तुम भी बिखरो,
कंठ मुक्तक की शिरा हो।
इस ह्रदय की वेदना की,
तुम अनौखी सी दवा हो।
चाहतों से जन्म देती,
आह की भस्मासुरा हो।
ज़िन्दगी का जाम तुम,
और मौत का पैगाम भी हो।
पुरुष की पूरक रगों में,
शक्ति का संचार भी हो।
हे प्रिये क्यों पुरुष के,
मन की व्यथा से खेलती हो।
खुद जिओ स्वच्छंद,
उसकी धड़कनें क्यों रोकती हो।
पुरुष से ही पूर्ण जब,
स्त्री का हर श्रृंगार हो।
प्रेम के पावन क्षणों का,
स्वप्न भी साकार हो।
क्यों कलह के बीज पर,
नफरत का पानी डालते हो।
क्यों सुलग बर्बाद हों,
एक दूसरे के प्राण हो।