हे पिता
तुम पुरुष हो तुम पिता हो अपने बच्चों के पिता हो
तुम स्वयं के भी पिता हो तुम पिता के भी पिता हो
तुम हिमालय के शिखर हो क्षितिज का विस्तार हो
आत्मज की आत्मा हो देह से भी पार भी पार हो
पूण्य या भगवतकृपा से प्राप्त एक वरदान हो
परिजनों की आन हो दोस्तों की शान हो
चैन की निद्रा निद्रा कभी सोते नहीं हो
सामने लेकिन कभी रोते नहीं हो
ज्ञान के तुम हो दिवाकर प्रेम के तुम इंदु हो
सारे नाते ठहरते जिस पर वही तुम बिंदु हो
अपनी संतानों के तो सखा भी बन जाते हो तुम
और आवश्यकता पड़े तो मां भी बन जाते हो तुम
दीपेश द्विवेदी ‘चिराग़ बैसवारी’
मौलिक व स्वरचित