हे निरीह प्राणी तू चाहता क्या है?
हे निरीह प्राणी तू क्या चाहता है,
क्या मैं अपना अधिकार छोड़ दूं,
क्या मैं अपना विवेक खो दूं,
और तेरी खिदमत में लग जाऊं,
अपने अरमानों को जला दूं,
उन सबको मैं निराश कर दूं।
जिन्होंने मुझे पर निवेश किया है,
मेरे अनुकूल वेश धरा है,,
कैसा सुंदर वातावरण बनाया,
मुझको, उनसे टिकट दिलाया,
मेरी टिकट मेरी ना होती,
यदि समय पर इनकी गांठ ना खुली होती।
इनके सहारे मैंने सत्ता पाई है,
पहले इनकी करनी भरपाई है,
फिर अगली बार भी तो किस्मत आजमाएंगे,
कुछ तो उसके लिए भी कमाएंगे,
हां समय बचा तो तेरी भी सोचूंगा,
किन्तु अभी तो मैं यही करुंगा।
तुमको इससे क्या परेशानी है,
मुझे यह देखकर होती हैरानी है,
एक वोट देकर अहसान जताते हो,
अरे वोट देने को तो तुम जाते ही हो,
फिर इसमें क्या रखा है,
तुमने किसके चुनाव चिन्ह पर हाथ रखा है,
चिन्ह तो उसमें भरे पड़े थे,
हमने तुम्हारे हाथ तो ना पकड़े थे,
बस कहा ही तो था वोट देने को,
ऐसा तो सभी कहते हैं कहने को।
वोट तो किस्मत वाला ही पाता है,
जीतकर भी वही आता है,
हम तो अपनी किस्मत से जीत गए,
तुम तो यों ही गले पड़ रहे,
देखो हमने कह दिया है,
सारा सच सामने रख दिया है,
और तो सच भी नहीं कहेंगे,
बस भरोसे पर उलझाए रखेंगे,
और अब भी तुम्हें नहीं मानना है,
तो बता तू कर भी क्या सकता है,
चल हट यहां से बक बक करता है,
तेरी तो औकात ही क्या है,
जो मुझसे लड़ने को खड़ा है,
तू तो है सिर्फ निर्बल और निरीह प्राणी,
और यही रहेगी सदा तेरी कहानी।