हे दीपशिखे!
तुम सतत निरन्तर शत-सहस्र
स्रोतों में बहती रहती हो, हे दीपशिखे !
दुनिया की मधुरमयी धारा
में नित स्रोतस्विनी होकर तुम
स्वतप्त पिघलती रहती हो, दीपशिखे !
तू प्राणमयी, तू ओजस् है
तू स्वर्णमयी, तू तेजस् है।
जग के कण-कण में प्रकृति
की मन-प्राण बसे की रेतस् है।
तुम नित्य-निरन्तर समय-चक्र में
वलय गति से जलती हो, हे दीपशिखे ।
तुम दलित नहीं, तुम पीड़ित नहीं
तुम स्वतंत्रता के छंद प्रिय!
तुम इड़ा-पिंगला सूर्य-चन्द्र
तुम तापस हो स्वच्छन्द प्रिये !
तुम्हीं कभी उनचास पवन
बन प्राण फूँकती रहती हो, हे दीपशिखे !