हे गुरू।
शब्द नही है मेरे पास ,हे गुरू!
कैसे करूँ आपका गुणगान,
कुछ छन्द पेश कर आपके चरणों में
करती हूँ मैं शत-शत बार प्रणाम।
आप दिया हो मैं बाती हूँ,
आप जलाते है तो जलती हूँ।
हे गुरू ! आपने मुझे ज्ञान
रूपी आधार प्रदान कर मुझको है जलाया।
फिर उस ज्ञान रूपी प्रकाश से,
मैंने अपना नाम इस जग मे है बनाया।
आप माली हो, मैं फूल हूँ,
आप खिलाते हो,तो मैं खिलती हूँ।
ज्ञान रूपी पानी से सींचकर
हे गुरू ! आपने मुझको खिलाया,
तब जाके मैंने अपनी जीवन
मे ज्ञान की खूशबू है फैलाया।
मैं माटी का कच्चा घड़ा था।
जिसको आपने ज्ञान से तपाया,
फिर जाके मैंने अपने को
पानी भरने लायक बनाया।
मैं थी एक साधारण पत्थर,
जिसका न था कोई मोल
हे गुरू! आपने जिसे तराश कर,
बना दिया उसको अनमोल।
मैं थी एक भटकती धारा।
जिसका न था कोई राह,
आपने जिसे राह दिखाकर
ज्ञान के भवसागर से मिलाया,
फिर जाके मैंने अपना
एक नया पहचान बनाया।
मैं अमावस्या का चाँद था।
जिसके जीवन में था अँधेरा,
आपने ज्ञान प्रकाश देकर
दूर किया मेरा अँधियारा ।
फिर जाके मैंने अपने को
पूर्ण चाँद है बनाया।
और इस चाँदनी को,
पूरे जग में बिखेर पाया।
मैं था समुद्र का भटका नाविक।
जिसको दिशा का न था ज्ञान ।
आपने धुव्र तारा बनकर ,
मुझे दिशा का ज्ञान दिया,
तब जाके मैंने जीवन रूपी
नाव को,
सही दिशा में ले जा पाया।
इस तरह करके, हे गुरू!
कई बार आपने मुझे राह दिखाया,
और मेरे इस जीवन को हे गुरू !
आपने ज्ञान देकर सफल बनाया।
~अनामिका