हे अन्नदाता !
हे अन्नदाता ! ,हे अन्नदाता !
हे अन्नदाता ! हे अन्नदाता !
उठों जागों तुम्हें खेत बुलाता
हल तुझसे पहलें जाग गए
बैल खेतों को भाग गए
जिससें तेरा जन्मों से नाता
हे अन्नदाता ! हे अन्नदाता !
उठों जागों तेरा खेत बुलाता,
तेरी धरती क्यूँ रहेगी परती
जो तुझ पर हैं जान छिड़कती
मिट्टी पानी खर पतवार
क्यूँ रहेगी इनसे गुलज़ार
इनकों हाथों से उखाड़ फेंकता
हे अन्नदाता ! ,हे अन्नदाता !
उठों जागों तेरा खेत बुलाता
देख तुझें बहार आती हैं
बीज नया जीवन पाती हैं
फ़सलों को इंतजार तेरा हैं
हाथों का दुलार तेरा हैं
जो तेरे थाप से उछल मचाता
हे अन्नदाता ! ,हे अन्नदाता !
उठों जागों तेरा खेत बुलाता
निराई गुड़ायी साफ सफ़ाई
हैं हरियाली जिनसे आई
जगत निहाल हो जाता हैं
हर प्राण शीश झुकाता हैं
फ़िर भी जो तनिक
गुमान न करता
हे अन्नदाता ! ,हे अन्नदाता !
उठों जागों तेरा खेत बुलाता
बातों से सरोकार नहीं हैं
किसी से भी तकरार नहीं हैं
परवाह कियें बिना चाह के
सत्य समर्पण सेवा भाव से
जो हैं ईश्वर कहलाता
हे अन्नदाता ! ,हे अन्नदाता !
उठों जागों तेरा खेत बुलाता
हे अन्नदाता ! ,हे अन्नदाता !
उठों जागों तुम्हें खेत बुलाता ।।
©बिमल तिवारी “आत्मबोध”
देवरिया उत्तर प्रदेश