हृदय बड़ा उद्विग्न है..
हृदय बड़ा उद्विग्न है..
सना हुआ है विघ्न में..
बड़ी विकट पड़ी घड़ी..
हूं तक रही खडी खड़ी..
है आज मौन खुद “धरा”..
है किस जगह मेरी #धरा
ये किस गगन के चंद्रमा को
मुख मेरा निहारता..
ये कौन आसमान से…
आवाज़ दे पुकारता!!
हूं खुद से यूंही भिन्न मै..
खुदी में छिन्न-भिन्न मै..
क्यों डूबती ही जा रही..
ना छोर कोई पा रही..
है खुद पे कोई वश नहीं..
हां बाध्य है विवश नहीं..
कहीं करे सुनी करे…
ना फिर भी खाली पन भरे..
वो एक चीज क्या बता??
हो जिस पे जान वारता
ये कौन आसमान से
आवाज़ दे पुकारता!!!
कु प्रिया मैथिल