हूँ मैं एक अबूझ पहेली
भीड़ से घिरी लेकिन
बिल्कुल अकेली हूँ मैं
हां, एक अबूझ पहेली हूंँ मैं
कहने को सब अपने मेरे
रहे सदा मुझको हैं घेरे
पर समझे कोई न मन मेरा
खामोशियो ने मुझको घेरा
ढूंढूं मैं अपना स्थान…
जिसका नहीं किसी को ज्ञान
क्या अस्तित्व है घर में मेरा?
क्या है अपनी मेरी पहचान?
अपने दर्द में बिल्कुल अकेली
हूँ मैं एक अबूझ पहेली…
सबका दर्द समझती हूंँ मैं
बिना कहे सब करती हूँ मैं
कहने को गृहिणी हूँ मैं
हर हिस्से में बंटी हुई मैं
इससे ऊपर कहां उठ पाती
बस इतनी मेरी पहचान
कितना दर्द समेटे हूँ मैं
जिसका नहीं किसी को ज्ञान।
नहीं चाहिए मुझको धन-दौलत
बस चाहूं थोडा अपनापन
दे दो मुझको मेरी पहचान
केवल कोई यंत्र नहीं मैं
स्वतंत्र हूं पर स्वतंत्र नहीं मैं
हां, बिल्कुल अकेली हूंँ मैं
हूंँ एक अबूझ पहेली मैं….?
अभिलाषा चौहान