हिमाद्री वर्मा डोई द्वारा रचित मन के अल्फाज-पुस्तक समीक्षा-मनोज अरोड़ा
मन के अल्फाज (कविता संग्रह)
कवयित्री-हिमाद्री वर्मा डोई
पुस्तक मूल्य-एक सौ पचास रुपये
पुस्तक समीक्षा-मनोज अरोड़ा
मैंने संमदर से सीखा है जीने का सलीका
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना
उक्त दो पंक्तियाँ युवा एवं ऊर्जावान कवयित्री हिमाद्री वर्मा डोई की नवकृति ‘मन के अल्फाज़’ (कविता-संग्रह) पर सटीक बैठती हैं, क्योंकि कवयित्री ने खयालों की दुनिया में रहते हुए जिस प्रकार मन के विचारों को कविताओं का रूप देकर पुस्तक को संजोया है मानो वह कहना तो बहुत कुछ चाह रही हैं पर चुप इसलिए हैं कि अगर कलम के जरिए मन के अल्फाज़ सामने वाले को समझ आ जाएँ तो उफान की क्या जरूरत है?
पुस्तक की शुरूआत कवयित्री ने प्रेम पर आधारित चार गीतों से की है फिर अगली कड़ी में कविताओं का सिलसिला शुरू होता है। उक्त कविताओं में वर्णित अल्फाजों की गहराई को मापना मानो समन्दर में से शंख ढूँढने के समान है, क्योंकि जिस प्रकार से हिमाद्री वर्मा ने लय को ताल से मिलाने का प्रयास किया है उसे पढ़कर शायद ही कोई ऐसा बिरला पाठक हो जो प्रेम की भाषा, आँखों का वैराग्य, हृदय की पीड़ा और मन की बात को न समझे।
प्रथम कविता ‘फैसला’ में कवयित्री लिखती हैं कि मैं तो सभी पर भरोसा करती हूँ और दोस्ती का हाथ आगे बढ़ा देती हूँ। आगे सामने वाले पर निर्भर है कि वह हमारी भावनाओं की कद्र किस प्रकार करता है? उक्त पंक्ति और कविता के शीर्षक पर पाठक स्वयं विचार करेंगे कि कविता का अन्त क्या होगा? क्योंकि कवयित्री द्वारा वर्णित शब्दों की गहराई इतनी है कि उस पर कलम चलाना मानो सूर्य को दीया दिखाने के बराबर है। कुछ आगे चलते हुए ‘अहसास दिल के’ कविता कुछ इस प्रकार से रची गई है जिसे जितनी बार भी पढ़ी या सुनी जाए कम ही है, क्योंकि कवयित्री ने मौन होकर कुछ इस प्रकार लिखा है-
निशब्दता में भी शब्दों की ध्वनि सुनाई देती है
जब बात दिल की हो और कंठ में रुदाली आ जाए…
कविता की शुरूआती पंक्ति से स्पष्ट महसूस होता है कि वह स्थिति कैसी होगी जब बात जुबान से नहीं बल्कि आँखों से कही गई हो और जुबां मौन हो लेकिन गला भर आए तो उसे वैराग्य नहीं तो और क्या नाम देंगे? कड़ी को आगे बढ़ाते हुए कवयित्री ने सकारात्मक सोच को उजागर करते हुए ‘विश्वास पर विश्वास’ कविता की रचना करते हुए लिखा है कि अमावस की रात भले कितनी ही अंधेरी क्यों न हो, लेकिन ईद के चाँद को लाख रोकना चाहो तो भी वह जकडऩों से बाहर निकल अपनी आभा जरूर बिखेरता है।
बीच पड़ाव से पूर्व ‘अंतर्विलाप नारी का’ कविता जगजननी की गाथा को दर्शाती है, कि वो नारी जो दो घरों को महकाती है, सँवारती है और आगे बढ़ाती है लेकिन अफसोस कि उसकी कुर्बानी का महत्त्व दुनिया क्यों नही समझ पाती??? अन्तिम पड़ाव से पूर्व जीवन की दास्तां पर आधारित कविता ‘कुछ खोकर कुछ पाया’ मानो भागमभाग जि़न्दगी का सार हो, जिसमें हिमाद्री वर्मा डोई ने मात्र चार पंक्तियों में सब कुछ कह दिया, आप बानगी देखिए—
बहुत कुछ खोया है मैंने
इन बुलंदियों की खातिर
देखो पत्थर का हो गया मैं
आसमान को छूने की खातिर
चार गीतों से पुस्तक का शुभारम्भ जितना आकर्षक दिखाई पड़ता है, उससे भी कहीं अधिक बेहतर समापन प्रतीत होता है, क्योंकि हिमाद्री वर्मा डोई ने संग्रह के शीर्षक पर आधारित कविता ‘मन के अल्फाज़’ को सबसे अन्त में कुछ इस प्रकार बंया किया है-
मन के अल्फाज़ बिन ध्वनि के भी बहुत शोर करते हैं
सुनाई देते हैं वो हमें तभी, जब हम उन पर गौर करते हैं
सही भी है, क्योंकि एक मन की बात दूसरा मन ही महसूस करे तो बात बनती है, वहाँ जुबाँ नहीं बल्कि आँखें आँखों से बात करती हैं।
हिमाद्री वर्मा डोई द्वारा रचित ‘मन के अल्फाज़’ कविता-संग्रह साहित्यप्रेमियो का केवल मनोरजंन ही नहीं करेगा, बल्कि उन्हें प्रेम-रस से सराबोर भी करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। उक्त संग्रह पठनीय होने के साथ-साथ मननीय एवं संग्रहणीय भी है।
मनोज अरोड़ा
(लेखक एवं समीक्षक)
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