हिन्द की बिंदी
लो आ गया वो दिन ,आज फिर मेरी याद आई
अखबारों में लिखकर, मंचो पर बोलकर सबने वाह ,वाह पाई
बस एक दिन के लिये मेरी याद आई।
कितनी सुंदर इसकी रचना ,
अलंकार, रस ,छन्दों से किया इसका श्रंगार,
फिर भी इसको माथे पर ,सजाने में सबको शर्म आई।
जैसे लिखी ,वैसी ही बोली,
इतनी सादगी इसमे समाई,
बस एक दिन के लिये मेरी याद आई।
वो भी क्या दिन थे ,जब सबकी जुबान पर थी मैं छाई,
चारो ओर मैं ही, मैं थी कहि ना थी रुसवाई।
एक एक शब्द शुद्ध है ,संस्कारो से परिपूर्ण है ,
फिर भी इसमें कहा कमी पाई है।
देसी विदेशी सभी शब्दो को, अपने अंदर समाया गागर में सागर भरकर दिखाया,
तत्सम तदभव के रूप में अपनाया ,
कहि मैं रसिक बनी, कहि मैं पथिक बनी
कहि विरह की व्यकुल प्रेयशी की पीड़ा हरि,
भरे पड़े है मेरे साहित्य के भंडार क्या कोई मेरी बराबरी कर पाई।
फिर भी मुझे बोलने में कियो शर्म आई।
आज के बाद फिर मैं किसी कोने में जाउंगी पाई ,
हिन्द की बिंदी को आज सबने मस्तिष्क से है हटाई।
इसको माथे पर सजाने में सबको शर्म आई,
अपनो के बीच अपनी पहचान कहि ना पाई।
व्यथित हु पीड़ित हु उपेक्षित हु पर,
जिंदा हु मैं बस इसी बात की खुशी मनायी
लो आ गया वो दिन आज फिर मेरी याद आई
रुचि शर्मा