हिन्दू धर्म में ही कलह का बीज
हिन्दू धर्म / सनातन धर्म और इस धर्म के धर्मचारियों ने इस धर्म में एक ऐसी खास पहचान रखी जो सायद ही विस्व के अन्य किसी धर्म में देखेंने को मिले । विस्व के ज्यादातर धर्मो का विभाजन क्षैतिज रूप से हुआ है अर्थात धर्म के कुछ अनुयाइयों ने धर्म के एक भाग को माना और कुछ ने दूसरे भाग को माना , इससे धर्म के दो भाग हो गए , बिलकुल उसी प्रकार जैसे वृक्ष की दो या तीन या फिर चार डाल होती है । उदाहरण स्वरूप इस्लाम में सिया-सुन्नी , जैन में स्वेताम्बर-दिगम्बर , बौद्ध में हीनयान-महायान ,ईसाइयत में कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट । इसका सबसे बड़ा फायदा यही हुआ कि इसमें धर्म का कोई भी हिस्सा ऊँचा या नीचा नही हुआ और दोनों ही हिस्से समान रूप से एक ही ईस्वर को मानंते है किंतु अपने अपने तरीकों से और अगर इनमे झगड़ा भी होता है तो इस बात पर नही कि मैं उच्च हूँ और तू निम्न बल्कि इस बात पर होता है कि हम सच्चे है और तुम झूठे ,जिससे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि या तो दोनों ही सच्चे है या फिर दोनों ही झूठे , अर्थात झगड़े के स्तर पर भी वो एक समान है।
किन्तु हिन्दू धर्म का विभाजन कल्पनाशील लोगों ने ऐसा किया कि उन्होंने ब्रह्म रचना पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया और वह प्रश्न अभी तक हल भी नही हुआ है और आये दिन समाज में खड़े होकर ब्रह्मा /श्रष्टि के रचयिता को ही चौराहे पर खड़ा कर देता है और फिर हिन्दू शोषक और शोषित जनता ब्रह्मा से हल पूछती है किंतु हल ना मिलने की सूरत में बहुत भयानक गाली खानी पड़ती है । और यही क्रम अब से नही बल्कि तब से प्रारम्भ हुआ है जब से ऋग्वेद के दशम मण्डल में पुरुष सूक्ति को जोड़ा गया है ।
पुरुष सूक्ति में वर्णित विराट पुरुष ने अपने शरीर के चार भाग ऊर्ध्वाधर रूप में किए और उन्ही भागों के क्रमानुसार हिन्दू धर्म को भी ऊर्ध्वाधर रूप में बाँट दिया।अर्थात मश्तिष्क पर ब्राह्मण, भुजाओं पर क्षत्रिय भुजाओं से नीचे वैश्य और जंघाओं से नीचे शुद्र।
अर्थात उन कल्पनाशील लोगों ने जहाँ एक तरफ शरीर को उच्च और निम्म श्रेणी अंगों में बांटा उसी प्रकार हिन्दू अनुयाइयों को भी , मतलब जिन लोगों से धर्म बना और आगे बढ़ा वो ही लोग उच्च और निम्न हो गए। एक बार तो ब्रह्मा जी को भी झटका लग गया होगा इस सोशल इंजीनियरिंग को देखकर कि ये क्या हो गया मेरा एक पुत्र/पुत्री बगैर कुछ किए उच्च हो गया और एक सबकुछ करने के बाद भी निम्न।
ये तो वास्तव में समझ से परे था कि उन्होंने हिन्दू अनुयाइयों को उच्च निम्न, अच्छे-बुरे,सज्जन-दुर्जन, ब्राह्मण-शुद्र में क्यों बांटा..? बहुत से विद्वानों ने इस बन्दर बाँट की अपनी अपनी सोच से व्याख्या की है जो हो सकता है उनको सही लगती हो , किन्तु मुझे तो आज तक नही जची।
भले ही मैं भी उसी क्षत्रिय वर्ण से ही हूँ किन्तु समझ नही आया ऐसा क्यों किया.? कुछ ने कहा कि उन्होंने रोजगार का एक सफल स्ट्रेटजी बनाई थी कुछ ने कहा कि ये एक सुनियोजित मशीन की तरह था जिसमे सभी पुर्जों के अपने अपने काम होते है।
हाँ हो सकता है किंतु ये किसने तय किया कि मशीन का यह पुर्जा मालिक का ज्यादा प्रिय है और यह अप्रिय , यह पुर्जा ज्यादा उच्च है और यह निम्म और इस आधार पर किसने कुछ पुर्जों को अधिकार दिया कि तुम अन्य पुर्जो को गाली दो भला बुरा कहो और उनके साथ मार पीट कर उनको दोयम दर्जा जीने के लिए मजबूर करो।
सच में हिन्दू धर्म प्रकृति के सबसे नजदीक होते हुए भी प्रकृति की भाषा को समझने में नाकाम रहा जिसकी कीमत केबल सामाजिक विद्रोह के रूप आये दिन भुगतना पड़ता है और इसका कोई इलाज भी नही दिखता। और राजनीतिक दल इसी बिगड़े स्वरुप का फायदा उठाते रहते है जिसकी बजह से विकास का मार्ग बहुत हद तक अबरुद्ध ही बना रहता है।