हिन्दी में ग़ज़ल की औसत शक़्ल? +रमेशराज
ग़ज़ल के ग़ज़लपन को विभिन्न दोषों के आघात से बचाने के लिये डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल अपनी सम्पादित पुस्तक ‘हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लें’ की भूमिका में लिखते हैं कि-‘‘बात ध्यान देने की है कि क़ाफिये [तुक] में अधिक बल स्वरों की समानता पर दिया गया है। जैसे-‘बदन’ का ‘दन’ और ‘चमन’ का ‘मन’ समान स्वर है, जबकि ‘दिन’ और ‘गिन’ उससे भिन्न हो गये। इसी प्रकार ‘जलना’, ‘मलना’, ‘ढलना’ एक समान क़ाफिये हो सकते हैं, पर इनके साथ ‘हिलना’, ‘मिलना’, का प्रयोग वर्जित है। कुछ अन्य तुकों पर भी दृष्टि डालें तो ‘आकाश’ का क़ाफिया ‘विश्वास’ नहीं हो सकता, क्योंकि ‘श’ और ‘स’ की ध्वनियाँ भिन्न हैं। ‘आई’, ‘खाई’, के साथ ‘परछाईं’, ‘साईं’ या ‘राख’ के साथ ‘आग’ और ‘नाग’ अथवा ‘शाम’, ‘नाम’, ‘काम’ के साथ ‘आन’, ‘वाण’, ‘प्राण’ तथा ‘हवा’ के साथ ‘धुआँ’ क़ाफिया का प्रयोग निषिद्ध है।’’
वे आगे लिखते हैं कि-‘‘यदि मतले में ‘जलना’ का क़ाफिया ‘ऐसा’ से बाँध गया है तो वह अन्त तक ‘आ’ की पेरवी करेगा। यदि मतले में ‘जलना’ का क़ाफिया ‘गलना’ बाँध दिया है तो इसी की पाबंदी पर ‘छलना’, ‘ढलना’, ‘पलना’ आदि का प्रयोग करना होगा।’’
हिन्दी ग़ज़ल के पितामह दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में आये दोषों पर वे टिप्पणी देते हैं कि-‘‘हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए’’ नामक ग़ज़ल में ‘पिघलनी’ ‘निकलनी’ का क़ाफिया ‘हिलनी’ तुक से मिलाने का प्रयोग उचित नहीं है। एक अन्य ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार ने ‘नारे’, ‘तारे’ के साथ ‘पतवारें’, ‘तलवारें’, ‘दीवारें’, क़ाफियों का प्रयोग किया है। इसमें अनुनासिकता के कारण स्वर की भिन्नता हो गयी है, अतः इन क़ाफियों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।’’
हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लों को प्रस्तुत करने से पहले ग़ज़ल के शास्त्रीय पक्ष पर की गयी यह चर्चा इसलिए सार्थक है क्योंकि ऐसे ही नियमों-उपनियमों के द्वारा ग़ज़ल का ग़ज़लपन तय होता है। ग़ज़ल में रदीफ़-क़ाफियों की शुद्ध व्यवस्था का प्रावधान ग़ज़ल की जान होता है। लेकिन डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल की इन बातों की सार्थकता का तब क्या औचित्य रह जाता है, जब वे इसी पुस्तक की पृ. संख्या-59 पर अपनी एक ग़ज़ल में ‘आहों’,‘निगाहों’ की तुक ‘बाँहों’ से मिलाते हैं और ‘आहों’ क़ाफिए को इस ग़ज़ल के अगले शे’र की ‘निगाहों’ से एक अन्य शे’र की ‘निगाहों’ को अड़ाते हैं। इन्ही क़ाफियों के क्रम में वे ‘गुनाहों और ‘पनाहों’ क़ाफिये भी लाते हैं। ये ग़ज़ल की व्याख्याओं, व्यवस्थाओं और सृजन के बीच कैसे नाते हैं, जो स्वराघात, स्वरापात और अनुनासिक स्वर-भिन्न्ता के बावजूद हिन्दीग़ज़ल बन जाते हैं।
हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लें कितनी [ श्रेष्ठ ही नहीं ] सर्वश्रेष्ठ हैं, आइये इसका भी जायजा लें-
श्री आत्मप्रकाश शुक्ल पृ. 25 पर ‘शयन’, ‘नयन’, ‘हवन’ के बीच तीन बार ‘मन’ क़ाफिया लाकर ‘अध्ययन’ करते हैं और इस प्रकार ‘मन’ में ‘यन’ की तुकावृत्ति के माध्यम से ग़ज़ल के भीतर हिन्दीग़ज़ल का स्वरालोक भरते हैं।
डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल की ही तरह हिन्दीग़ज़ल के महान उपदेशक, विवेचनकर्त्ता , डॉ. उर्मिलेश ‘मरता नहीं तो क्या करता’ की विवशता लादे हुए इसी संग्रह के पृ. 30 पर मतला के ‘दरबार’ में ‘हार’ कर ‘अंधियार’ का ‘त्यौहार’ मनाते हुए, हिन्दीग़ज़ल का ऐसा ‘उपहार’ देते हैं, जिसका ‘सत्कार’ तीन बार ‘हार’ के रूप में रदीफ की तरह होता है। कुल मिलाकर यह काफ़ियों का अनूठा ‘विस्तार’ ग़ज़ल की आँख भिगोता है।
हिन्दी ग़ज़ल-विद्यालय के हिन्दी प्रवक्ता डॉ. कुँअर बेचैन की ग़ज़ल के नैन वैसे तो कथ्य की विलक्षणता को संकेतों में कहने में बेहद माहिर हैं, लेकिन पृ. 47 पर उनकी ग़ज़ल के क़ाफिये का श्रवण बना ‘स्वर’, ‘काँवर’ के साथ सिर्फ ‘वर’ है, तो भले ही कुछ ‘अन्तर’ से ही सही, दशरथ बने स्वराघात के ‘मंतर’ से अपने ‘सर’ को खून से ‘तर’ करायेगा। हिन्दीग़ज़ल में क़ाफियों का जल-संचय करते इस बेचारे श्रवण को कौन बचायेगा?
श्री ओंकार गुलशन की ग़ज़ल की कहन में नवीनपन है किन्तु पृ. 38 पर मतला में ‘नाम’ से ‘बदनाम’ की तुक क़ाफिये को ही ‘गुमनाम’ कर देती है। आगे इसमें ‘राम’, ‘आराम’ करते हुए ‘घनश्याम’-से बाँसुरी बजाते हैं। हिन्दीग़ज़ल में क्या यही शुद्ध क़ाफिये कहलाते हैं?
हिन्दीग़ज़ल की रोशनी के हस्ताक्षर, मान्यवर जहीर कुरैशी इस पुस्तक के पृ. 78 पर अपनी ग़ज़ल के मतला के ‘अन्जान’ शहर में क़ाफिये की शुद्ध ‘पहचान’ करने में इतने ‘परेशान’ हैं कि ‘शमशान’ तक जाते हैं और वहां अपनी दूसरी ग़ज़ल में ‘जहीर’ की तुक ‘हीर’ से मिलाते हैं और पृ. 62 पर ‘कबीर’ कहलाते हैं।
श्री महेन्द्र भटनागर ‘चुराई’ की तुक ‘छिपाई’ से मिलाने के बाद अगर आगे की तुकों में ‘अपना’ ‘सपना’ लायें और ऐसी ग़ज़लें सर्वश्रेष्ठ न कहलायें, ऐसा कैसे हो सकता है, ऐसी ग़ज़लों की तुकें तो हिन्दीग़ज़लों की ‘धरोहर’ हैं लेकिन डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल के ‘आसरे पर’ हैं। इसलिये हिन्दी ग़ज़ल कहने की इस ‘होड़’ में श्री विनोद तिवारीजी पृ. 157 पर ‘जोड़’ की तुक यदि ‘दौड़ से मिलायें तो हम क्यों खेद जताएँ। हम ठहरे तेवरी की जेवरी बँटने वाले तेवरीकार, हमें क्या अधिकार जो काका हाथरसी की इसी पुस्तक में छपी हज्लों को हिन्दीग़ज़ल न बताएँ।
हिन्दी में ग़ज़ल की शक़्ल आजकल है ही ऐसी कि किसी से मतला अर्थात् सिर ग़ायब है तो कहीं तुकें सिसक रही हैं। कहीं छंद से लय का मकरन्द लापता है तो कहीं ग़ज़ल के नाम पर कोरी गीतात्मकता है। हिन्दी के ग़ज़लकार हैं कि ग़ज़ल के ग़ज़लपन से मुक्ति पाकर भी ग़ज़ल-ग़ज़ल चीख रहे हैं। कुछ मिलाकर ग़ज़ल के नाम पर में उत्पात ही उत्पात दीख रहे हैं।
‘बराबर’ हिन्दी पाक्षिक के मई-2002 अंक में श्री प्रदीप दुबे ‘दीप’ की पृ. 11 पर 6 ग़ज़लें प्रकाशित हैं। वे अपनी पहली ग़ज़ल के मतला में ‘खंजर’ की तुक ‘मंतर’ से बाँधते हैं और आगे की तुकें ‘अस्थिपंजर’ और ‘बंजर’ लाते हैं। तीसरी ग़ज़ल में वे ‘भारी’ और ‘हितकारी’ की तुक ‘उजियारी’, ‘तैयारी’, ‘यारी’ से मिलाते हैं। यह सब किसी हद तक झेला जा सकता है। लेकिन ग़ज़ल संख्या चार में ‘पहरे’ की तुक ‘सवेरे’ और फिर ‘चेहरे’ के साथ-साथ ‘गहरे’ और ‘मेरे’ से मिलती है तो ऊब पैदा होती है, खूब पैदा होती है। ग़ज़ल में सही तुकों का अभाव भले ही घाव दे, मगर क्या किया जा सकता है? हिन्दी में ग़ज़ल की औसत यही शक़्ल है।
अतः ऊबते हुए ही सही, प्रदीप दुवे ‘दीप’ की ग़ज़ल संख्या-6 का भी अवलोकन करें- इसके मतला में ‘गुल’ से ‘पुल’ की तुक बड़ी खूबसूरत तरीके से मिलायी गयी है, लेकिन इसके बाद की तुकें ‘दिल’ और ‘बादल’ कोई ‘हल’ देने के बजाय स्वराघात की उलझनें ही उलझन पैदा करती हैं, ग़ज़ल में मौत का डर भरती हैं।
ग़ज़ल की हत्या कर, ग़ज़ल को प्राणवान् बनाने के महान प्रयास में हिन्दी में ग़ज़लकार किस प्रकार जुटे हुए हैं, इसके लिये कुछ प्रमाण चर्चित कवि अशोक अंजुम द्वारा सम्पादित ‘नई सदी के प्रतिनिधि ग़ज़लकार’ नामक पुस्तक से भी प्रस्तुत हैं-
हिन्दी ग़ज़ल के महाज्ञाता, चन्द्रसेन विराट पृ.51 पर अपनी दूसरी ग़ज़ल के मतला के क़ाफिये में काफी ’ विकल’ रहते हुए बड़ी ही ‘सजल’ ‘ग़ज़ल’ लिखते हैं और इस ग़ज़ल में ‘सरल’, ‘विरल’ बार-बार दिखते हैं। स्वर का बदलना ‘सजल’ और ‘ग़ज़ल’ के बीच है या ‘सरल’, ‘तरल’ और ‘विरल’ के बीच या ‘विकल’ और ‘धवल’ के बीच? विराटजी की यह ग़ज़ल भले ही ‘विमल’ दिखे, किन्तु इसका ‘योगपफल’, ‘विफल’ ही है।
श्री शिवओम ‘अम्बर’ हिन्दीग़ज़ल के स्वर्णाक्षर हैं। उनकी ग़ज़ल की ‘साधना ’ तो ‘नीरजना’ ही नहीं ‘आराधना ’ है लेकिन इस पुस्तक के पृ. 131 पर प्रकाशित ग़ज़ल की तुकों के बीच यह कैसी ‘सम्भावना’ है, जिसमें स्वराघात देने वाली तुक ‘प्रस्तावना’ है, ‘आराधना ’ की तुक ‘आराधना’ है।
डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’ हिन्दी ग़ज़ल के एक कद्दावर फनकार हैं। उक्त संग्रह के पृ. 116 पर उनकी दूसरी ग़ज़ल के क़ाफिये अगर दो बार ‘खबर’ बनकर ‘मुखर’ होते हैं तो चार बार ‘सोचकर’, ‘झूमकर’, ‘भागकर’ छोड़कर’- अर्थात्, केवल ‘कर’ में मिटकर इतना अवसर ही नहीं देते कि स्वराघात से बचा जा सके और इन्हें शुद्ध क़ाफिया कहा जा सके।
आभा पूर्वे दोहों में ग़ज़ल कहती हैं। पृ. 25 पर छपी उनकी दोहाग़ज़ल की शक़ल यह है कि ‘प्राण’ की तुक ‘वरदान’ ही नहीं, तीन बार ‘मान’ भी है। यहाँ भी स्वराघात की मौजूदगी है।
ग़ज़ल की कहन का फन जिन ग़ज़लकारों को ख्याति के चरम तक ले गया है, ऐसे ख्याति प्राप्त ग़ज़लकार भी हिन्दीग़ज़ल में चमत्कार दिखला रहे हैं।
प्रो. शहरयाह की ख्याति, खुशबू की भांति विश्व के दरवाजों पर दस्तक दे चुकी है। कई अकादमियों के पुरस्कारों से उनकी शायरी सजी है। वे पृ. 128 पर अपनी पहली ग़ज़ल में ‘समझूंगा’ की तुक ‘रक्खूंगा’, ‘देखूंगा’, ‘लिक्खूंगा’ के रूप में मिलाते हैं और उसमें दो बार ‘बदलूंगा’ भी लाते हैं, तो ‘खूंगा’ से ग़ज़ल की पूरी तस्वीर हिलती है और गिरकर बेनूर हो जाती है। चकनाचूर हो जाती है। संयुक्त रदीफ क़ाफियों का यह प्रयोग, काफियों का भंग-योग बन जाता है।
इसी संग्रह के पृ. 125 पर विज्ञानव्रत की ग़ज़ल का रथ स्वराघात की कीचड़ इतना ‘लतपथ’ हो जाता है कि वह ग़ज़ल से खोये समांत [ रदीफ ] को चीख-चीख कर सहायता के लिये बुलाता है। धीरे-धीरे कीचड़ में पूरा का पूरा रथ डूब जाता है। ग़ज़ल के क़ाफियों का पता करने पर ‘केला’ हाथ लगता है जो ‘था’ ‘था’ ‘कहता’ हुआ, रदीफ के गायब हो जाने की समस्या पर बार-बार ‘झगड़ा’ करता है। ‘पता’ ‘केला’, ‘था’, ‘था’, कहता तुकांतों के बीच यह भी पता नहीं चल पाता है कि इस ग़ज़ल में रदीफ़ या क़ाफियों की व्यवस्था क्या है? हिन्दी ग़ज़ल में ग़ज़ल की यह अवस्था क्या है?
श्री तुफैल चतुर्वेदी इसी संग्रह के पृ. 86 पर ‘पल’ की तुक ‘घायल’ लाने के बाद ‘कोयल’ लाते हैं। ‘यार’ की तुक ‘यार’ से ही निभाते हैं। उनके ये क़ाफिये स्वर के आधार पर क्या बदलाव लाते हैं?
श्री निदा फाजली वैसे तो ग़ज़लें बहुत भलीभांति कहते हैं लेकिन मतला के क़ाफिये ‘जीवन’ और ‘उलझन’ यदि ‘बन्धन’ के साथ [इस संग्रह के पृ.94 पर] ‘ईंधन’ बन जायें तो इसका ‘धन’ काफ़िया होकर भी रदीफ-सा लगेगा और स्वर पर आघात जगेगा।
चर्चित प्रतिष्ठित कवि बशीर बद्र, काबिले कद्र हैं। उनकी प्रभा हिन्दी की हर सभा में छटा बिखेरती है। ग़ज़ल में विलक्षण प्रयोग के योग उनके साथ हैं। किन्तु पृ. 68 पर प्रकाशित उनकी दूसरी ग़ज़ल का मतला ‘हो’ से ‘खो’ की तुक मिलने के बाद दो बार फिर ‘हो’, ‘हो’ चिल्लाता है और अन्त में फिर ‘खो’ में खो जाता है। यह ग़ज़ल का हिन्दीग़ज़ल से कैसा नाता है?
श्री बेकल उत्साही इसी पुस्तक की पृ. सं. 69 पर विराजमान हैं। उनकी ग़ज़लों के क़ाफिये मौलिक और बेमिसाल हैं, जिनमें विलक्षण प्रयोगों के कमाल हैं। लेकिन यहाँ भी सवाल हैं-उनकी दूसरी ग़ज़ल के दस शे’रों की ‘चिट्ठियाँ’ चार बार ‘लियाँ’ ‘लियाँ’ की ध्वनि के साथ ‘रस्सियाँ’ बटती हैं और वे एक दूसरे के क़ाफियापन को उलटती-पुलटती हैं, अन्ततः एक रदीफ की तरह सिमटती हैं। ऐसा क्यों? उत्तर यों-
हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से छूट लेने की जो लूट मची हुई है, उससे ग़ज़ल का ग़ज़लपन नष्ट हो रहा है। ग़ज़लकार को जहाँ सजग रहना चाहिए, वहीं सो रहा है।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001