देश का दुर्भाग्य
इसे हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जिसकी राष्ट्रभाषा, मातृभाषा, राजभाषा, गरीबों के कामकाज की भाषा… सब कुछ हिंदी है। फिर भी वहां हिंदी की उपेक्षा की जा रही है। लोग अंग्रजी बोलने में बहुत दम लगाते हैं। फिर भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाते। हिंदी तो इतनी सरल, सौम्य है कि उसे आसानी से पढ़ा, समझा, बोला जा सकता है। हमारे देश की यह विडंबना है कि यहां हिंदी उचित पायदान तक नहीं पहुंच पाई है। इसीलिए यहां हिंदी दिवस मनाने की जरूरत पड़ रही है। सही बात तो यह है कि हिंदी के उत्थान-कल्याण-विकास की अधिकांश बातें झूठी हैं। हालांकि हर साल हिन्दी दिवस पर इस भाषा के उत्थान की बातें बहुत होती हैं, आवाज भी बुलंद की जाती है लेकिन नतीजा “ढाक के तीन पात” वाला रहता है। हिन्दी दिवस की सार्थकता उस समय सिद्ध होगी, जब भारत में हिन्दी दिवस मनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में गाड़ी पर हिंदी में नंबर लिखा हो तो चालान हो सकता है, हिंदी में बात करने के लिए 2 दबाना पड़ता है, देश की शीर्घ अदालतों में हिंदी में कोई कागज दाखिल नहीं कर सकते, बहस भी नहीं कर सकते, भारत के बहुत से नागरिक ७७, ७८, ६९, ५८ आदि गिनती को नहीं समझ पाते, देश के लोग हिंदी संवत और महीनों के नाम तक नहीं जानते। उस देश की जनता को हिंदी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।