“हिचकी” ग़ज़ल
कहाँ से यकबयक, ये धूप मेँ, बदली आई,
मिरे आग़ोश मेँ, इक शोख़ सी, तितली आई।
कू-याराँ मेँ, देखता था, उसी के, घर को,
याद क्या उसको, पुरानी सी वो खिड़की आई।
माँ भी मजबूर थी, उसकी, था इल्म ये मुझको,
ज़हन मेँ उसके है लगता, वही झिड़की आई।
वफ़ा के, ज़िक्र पे, नज़रें भले, झुका लेना
मिले जभी भी, पर, लगता था, ज़िन्दगी आई।
धड़कनों मेँ भी इक सुरूर है अजब “आशा”,
आज लगता है, उसके नाम की, हिचकी आई..!
कू-याराँ # प्रेयसी की गली, Street of the beloved
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