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14 Sep 2024 · 3 min read

#हिंदी_दिवस_विशेष

#हिंदी_दिवस_विशेष
■ कूपमण्डूक नौकरशाहों की दृष्टि में साहित्यकार
【प्रणय प्रभात】
भाषा और साहित्य दोनों के लिए कथित “अमृतकाल” किसी विषाक्त व संक्रामक काल से कम नहीं। इस अटल सच के साक्षी हैं, मेरे जैसे असंख्य सजग, सक्रिय व नियमित रचनाधर्मी। जो न अपने आत्मसम्मान के साथ कोई समझौता कर सकते हैं, न किसी स्वयम्भू विभूति या मठाधीश की चापलूसी। अपात्र का महिमा-मंडन या किसी कुटिल का यशोगान जिनके लिए कदापि संभव नहीं। जी हां, यह वो प्रजाति है, जो मान-सम्मान या अलंकरण खरीदना तो दूर आवेदन कर मांगना तक पसंद नहीं कर सकते। परिणाम यह कि प्रतिष्ठा की दौड़ से पूरी तरह बाहर हैं। जिन्हें आप हाशिए पर भी मान सकते हैं।
मूल कारण है सरकारी या संस्थागत सम्मानों के लिए सहित्यिक समझ से कोसों दूर राजनेताओं या नौकरशाहों की संस्तुति की परंपरा, जो भाषा व साहित्य दोनों के भविष्य के लिए घातक व मारक है। विडम्बना है कि सहित्यिक पात्रता, योग्यता व दक्षता का निर्धारण व चयन उनके हाथ है, जिन्हें साहित्य परंपरा तो छोड़िए एक साहित्यकार की परिभाषा तक पता नहीं। इन मदांध मूढ़ों की दृष्टि में साहित्यकार की शायद एक अलग ही छवि है। बिल्कुल वैसी ही जैसी चक्षुहीनों को एक कहानी के अनुसार हाथी की थी। किसी के लिए स्तम्भ तो किसी के लिए सूप। एक के लिए रस्सी तो दूसरे के लिए पाइप।
सरकारी दामाद (छोटे, बड़े या मंझोले) के तौर पर अन्यत्र कस्बों या गांव-खेड़ों से आकर अपनी ग्रहण क्षमता, खुराक व पाचन तंत्र के बलबूते बरगद की तरह आकार पा जाने और हमारे अपने नगर और जिले की धरती का बोझ बढ़ाने वाले अनगिनत महामूर्ख श्रेणी के तथाकथित बुद्धिजीवियों (महाधूर्तों) के अनुसार “साहित्यकार” उसे ही कहा और समझा जा सकता है जो:-

+ मंगल ग्रह या चन्द्रलोक का निवासी हो।
+ मां के गर्भ से पैदा ना होते हुए सीधे अवतरित हुआ हो।
+ सामान्य व्यक्तियों से बिल्कुल अलग दिखाई देता हो।
+ जिसकी देह से दिव्य किरणें रह-रहकर फूटती हों।
+ जो खाने-पीने के लिए कम से कम मुंह का उपयोग तो ना करता हो।
+ जो भूख-प्यास, थकान, विश्राम जैसे भावों से सर्वथा परे हो।
+ जिसकी परछाई कभी धरती पर गिरने का साहस नहीं करती हो।
+ जिसके पैर चलते-फिरते समय धरती का स्पर्श ना करते हों।
+ जो इच्छाधारी नाग की तरह जब चाहे प्रकट और लुप्त हो सकता हो।
+ जिसके माथे पर अश्वत्थामा की तरह मणि सुशोभित होती हो।
+ जिसकी खोपड़ी के पिछले हिस्से में आभायुक्त चक्र घूमता हो।
+ जो मानवीय समाज से अलग देवलोक का दूत दिखाई देता हो।
+ जो माथे पर मुकुट लगाकर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित रहता हो।
+ जिसकी कमर में समस्त प्रकार के ज्ञान के भण्डार की चाबी लटकी हो।
+ जो बिना कानों के सुनने और बिना नाक के सूंघने की शक्ति रखता हो।
+ जिसका स्पर्श करने मात्र से हजारों वोल्ट का करेण्ट लगता हो।
+ जिसकी छवि दर्पण या तरल पदार्थ में दिखाई ना देती हो।
+ जिसकी देह से केसर या कस्तूरी की मदमाती गंध सदैव आती हो।
+ जिसके पास भ्रमण करने के लिए एक अदद पुष्पक विमान हो।
+ जिसके श्रीमुख से दिन-रात ज्ञान की गंगा फूटती रहती हो।
+ जिसके पास स्वयं भगवान या मां सरस्वती द्वारा प्रदत्त प्रमाणपत्र हो।
+ जिसकी भुजाओं में हजार हाथियों का बल हो।
+ जिसकी चमड़ी पर सर्दी, गर्मी, बरसात का असर नहीं होता हो।
+ जिसकी गति सूर्यदेवता के रथ से कई गुना अधिक हो।
हे मेरे भगवान,,,,,,,,इतने सारे गुण ?
अच्छा किया जो नहीं दिए तूने,,,वर्ना मार डालते लोग ऐलियन या भूत-प्रेत समझ कर।। अंततः लानत धूर्तों पर इन पंक्तियों के साथ-
“डूब के मर जाओ कुए के मेंढकों! पता नहीं क्या देखा था तुम्हारे मां-बापों ने जो तुम्हारी अंधता को नजर-अंदाज कर तुम्हारा नाम नयनसुख रख दिया।”
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्य प्रदेश)

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