हिंदी साहित्य में लुप्त होती जनचेतना
हिंदी साहित्य में लुप्त होती जनचेतना
हिंदी साहित्य अपने आप में ही हज़ारों समुन्दरों को समेटे हुए है।
हिंदी साहित्य की बुनियाद और नीव बड़ी ही मज़बूती से खड़ी हुई है, जो की विषम परिस्थितियों में भी कभी हारी नहीं है।हिंदी साहित्य को मज़बूत करने में हज़ारों लेखकों का हाथ है,हिंदी साहित्य का इतिहास बहुत ही समृद्धशाली व अनूठा रहा है।साहित्य समाज का आईना होता है, जब भारत ग़ुलामी व परतंत्रता के दौर से गुजर रहा था , तब हिंदी साहित्य के माध्यम से ही जनजागृति का बीड़ा उठाया गया , भारतेंदु युग ही नवजागरण युग कहलाया ।साहित्य के द्वारा ही जनजागरण किया गया ।धीरे धीरे ये जनजागरण साहित्य से लुप्त होता जा रहा है, अब वो जनवादी चेतना विरले ही कहीं देखने को मिलती है।
अब साहित्य सृजन कुछ मूलभूत विषयों के इर्द गिर्द ही घूमता नज़र आता है,अब पाठक वर्ग और श्रोता वर्ग बहुत ही कम हों गये है,
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने साहित्य के स्वरूप को ही बदल दिया ।
अब साहित्य पुस्तकों में कम मल्टीमीडिया ग्रुप्स में ज़्यादा नज़र आता है। और वो भी ऐसा साहित्य जिसके सिर पैर का कोई वजूद ही नहीं है।
अचानक से ई सर्टिफ़िकेट्स की भरमार आ गई है, जिसमें दो चार पंक्तियों को रचने गढ़ने वाले को भी सर्वश्रेष्ठ रचनाकार का सम्मान प्राप्त हो रहा है।
आजकल हर दूसरा व्यक्ति साहित्यकार है, साहित्यिक विधाएँ ही कितने प्रकार की है पता नहीं ,
शैली के आवश्यक गुण क्या है कुछ होश नहीं , साहित्यिक कालावधि का ज्ञान नहीं । रचना लेखन में प्रयोग में होने वाले आवश्यक प्रतिमान का ही बोध नहीं , फिर काहे के साहित्यकार ।
अब साहित्यकार में वो जनचेतना बची ही नहीं जिससे व्यापक समाज को चेताया जा सके जो साहित्य को जीवंत रख सके ।
बंधी बँधाई परिपाटी का निर्वहन ही अब दायित्व बोध के दायरे में आ गया है,अब वो सशक्त जागरूक ना ही भारतेंदु बचे ना ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल रहें,।
सिर्फ़ और सिर्फ़ अंध दौड़ नामों की आँधी आई हुई है , उसमे हमारा नाम पीछे नहीं रहना चाहिए ।
साहित्य से समाज को चेताया जाता था , और आज साहित्य दिन विशेष रचनाओं में प्रवर्तित हो गया है,कुछ भी ऐसा सृजन आजकल पढ़ने कों नहीं मिल पाता नो वाक़ई आत्मा को झकझोर सके।
इन्ही शब्दों के साथ आपसे विदा ले रही हूँ ।
धन्यवाद
डॉ अर्चना मिश्रा