हिंदी बनाम अंग्रेजी
हिंदी हमारी मात्र्भाषा है, लेकिन अन्ग्रेज़ी ना तो मात्र्भाषा है ना ही राष्ट्रभाषा !
कोढ़ में खाज का काम अंग्रेज़ी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। एन. कृष्णस्वामी और टी. श्रीरामन ने इस बाबत ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते अंग्रेज़ी ज्ञान जड़ विहीन ही रहेगा। यदि अंग्रेज़ी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से।
चलो इस बात पर भी विचार कर लेते हैं कि अंग्रेज़ी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने की बजाय वाकई सारे देश की संपर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए?
नंबर एक, मुझे नहीं लगता कि इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप से राजनैतिक कारणों से भी),
दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा संस्कृति को जबरन छीनना। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज़ भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।
याद रहे कोई अमेरीकन या कोई फ्रांसीसी आपसे हिन्दी में बाततभी करेगा जब आप उससे उसकी भाषा में बात करेंगे। सिर्फ हिन्दी में बात करके न हम हिन्दी की सीमा को छोटा कर रहे हैंबल्कि पूरी दुनिया में अपने आप को कुएं का मेढक घोषित कररहे हैं और इससे दूसरे भाषा के साथ संवाद नहीं होता और हिन्दी सिर्फ हिन्दी भाषियों के बीच सीमित रह जाता है, और ऐसाकरना कोई गौरव की बात नहीं।
मुझे इस बात का भी एहसास है कि हिन्दी के लिए हिन्दी माध्यमसे लड़ाई कने वालों की संख्या कुछ ज्यादा है, लेकिन हिन्दी केलिए अङ्ग्रेज़ी या अन्य भाषा के माध्यम से उसे बढ़ाने वालों कीसंख्या न के बराबर है। तभी तो आज गिने चुने अङ्ग्रेज़ी बोलनेवाले पूरे भारत पर अभी भी राज कर रहे हैं और हमारा हिन्दीभाषी और अन्य 1600 से ज्यादा भाषा बोलने वाला भारतवर्षमूकदेखता रहा है।
अगर आप हिन्दी के लिए सचमुच में निष्ठावान हैं तो उनसरकारी महकमे को समझाएँ जो आज भी अंग्रेजीयत के शिकार हैं और जो न सिर्फ जनता के पैसे से जीते हैं बल्कि अङ्ग्रेज़ी मेंपूरा का पूरा कानून बना डालते हैं। इतना ही नहीं आजादी के 68साल के बाद भी उसी कानून को अङ्ग्रेज़ी में लागू भी करते हैंऔर जमीन से जुड़े उन हर इंसान को हेय दृष्टि से देखते हैं जो अपनी भाषा और मिट्टी से जुड़ा है।
मुझे बहुत ही पीड़ा महसूस होती है जब कोई हिन्दी को आगेबढ़ाने की बात करे (चाहे जैसे भी हो) तो उसे कोई न कोई कारणसे हतोत्साहित कर दिया जाता है खास के उन हिन्दी प्रेमियों केद्वारा जो काम कम करते हैं और आलोचना ज्यादा। मैं अङ्ग्रेज़ीमें लिखूँ तो फर्क पड़ता है और पूरा भारतीय प्रशासन जबअङ्ग्रेज़ी में नियम और कानून बना डाले और उसे करोड़ोंजनता पर थोप दे और उन्ही के पैसे से, तब कोई कुछ नहींबोलता। माफ कीजिएगा ऐसे हिन्दी प्रेमियों के साथ मेरा मेल नहींखाता।
हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली पाँच भाषाओं में से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल पाँच प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी समझते हैं। कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत दो से ज़्यादा नहीं है। नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो प्रतिशत जानने वालों की संख्या 18 लाख होती है और अंग्रेज़ी प्रकाशकों के लिए यही बहुत है। यही दो प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही, उससे भी ज़्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है
इस समय अन्ग्रेज़ी विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है?
फ़िर हिंदी अपनाकर तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नॉब नेटिव) बनते जा रहे हो? मुझे बार-बार यह बताया जाता है कि भारत में संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी ज़रूरी है, जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेज़ी का विराजमान होना। क्यों कि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती।
– जयति जैन, रानीपुर झांसी