हिंदी के मुहावरों पर एक नई पहल -कविता के रूप में—आर के रस्तोगी
हिन्दी के मुहावरे,बड़े ही खरे है
खाने पीने की चीजो से भरे है
कही पर फल है कही पर आटा दाले है
कही पर मिठाई है तो कही मसाले है
चलो ये मुहावरे फलो से शुरू कर देते है
उनमें कितना स्वाद है जरा चख लेते है
कही आम के आम गुठली के दाम होते है
जब अँगूर मिलते नहीं तो वे खट्टे होते है
कही खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग बदलता है
कही दाल गलती नही कही दाल में काला होता है
कोई डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाता है
कोई लोहे के चने चबाता है
कोई माल- पूऐ कहकर रोता रहता है
कोई दाल-भात में मूसल हो जाता है
कही आटे में तो नमक चल जाता है
कही गेहू के साथ घुन पिस जाता है
कही गरीबी में आटा गीला हो जाता है
कही पानी में दूध मिल कर आता है
गुड खाते है पर गुलगुले से परहेज करते है
और कही गुड का गोबर सब कर देते है
कही तिल का ताड़ बना देते है
कही राई का पहाड़ बना देते है
कही ऊट के मूह में जीरा है
कोई जले पर नमक छिडकता है
किसी के दूध के दात गिरे नहीं
तो कोई दूध का धुला नहीं
किसी को छटी का दूध याद आता है
कोई छाछ को दूध समझ कर पीता है
जब कोई दूध का जला हो तो
वह छाछ को भी फूक फूक कर पीता है
आर के रस्तोगी