हिंदी कब से झेल रही है
हिंदी कब से झेल रही है
सौतेलेपन का व्यवहार
सरकारी महकमों में भी
मिले इसे उपेक्षा की मार
शीर्ष पर अरसे से जमे हैं
जो बड़े नामवर हुक्काम
वो ही बदलना चाहते नहीं
हिंदी की दिशा औ आयाम
पश्चिमी दर्शन से ही प्रेरित है
देश की समूची अफसरशाही
सभी कार्यालयों में धड़ल्ले से
कायम अंग्रेजी की राजशाही
भाषा के नाम पे विभाजित हैं
राष्ट्र के सभी राज्यों के लोग
उन सभी में बढ़ नहीं पाता है
कभी पारस्परिक सहयोग
विभाजन की गंदी राजनीति भी
बढ़ाती सतत लोगों के बीच बैर
ऐसे में हिंदी कैसे बन सकती है
सभी देसी भाषाओं की सिरमौर
बाजारवाद के कारण हो रहा है
अब हिंदी का चहुंमुखी विस्तार
मगर श्रम के लिहाज से मिलती
नहीं हिंदीसाधकों को सही पगार
मांग की तुलना में बहुत अधिक
बड़ी हिंदी साधकों की आबादी
शायद इसी कारण उनके लिए
मयस्सर नहीं सुविधाएं बुनियादी