हास्य कविता — कवि-पत्नी की व्यथा
कवि-पत्नी की व्यथा
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पत्नी जी अति प्रेम में विह्वल कह गईं दिल की बात।
हे प्रिय! क्या तुम दोगे मुझको कविता की सौगात?
पत्नी को खुश करने का यह अच्छा अवसर पाया,
फिर क्या था ,कवि ने अपना पूरा कौशल दिखलाया
पति का कवि मन अंतर्मन में धीरे से मुस्काया
चाँद सितारों का फिर उसने चक्कर एक लगाया,
उत्सुक नयना प्यारी के मुखमंडल को निहारा,
प्रकृति से सुंदर रूपों को उसने खूब विचारा,
मधुर-मधुर अनुभूतियाँ यों साँचे में ढलने लगीं,
गीतों की कड़ियाँ मधुर झरनों सी बहने लगीं,
कवि जी अब तो लग गए बस प्यारी को बहलाने
पकड़-पकड़ कर हर पल नई कविता लगे सुनाने,
कवि की कविता की धारा मानो अब तो फूट पड़ी।
पर यह क्या कवि प्राणप्रिया पत्नी जी तो रूठ पड़ी।
क्रोध भरा मुख दमक उठा बोली अब कितना सताओगे
क्या कोई अब न काम रहा जो हर पल शेर सुनाओगे
वैसे भी अब इस घर में एक पल का भी आराम कहाँ
चाहे करो जितनी मेहनत बिखरे रहते सब काम यहाँ
नींद तो थोड़ी लेने दो अब कितना और रुलाओगे
जगा जगा के यूँ मुझको तुम कितनी कविता सुनाओगे
मैं तो यदा कदा बस दो लाइन कहने को बोली थी
कौन सी थी मनहूस घड़ी जो अपना मुँह मैं खोली थी
कुछ मोती चुनने को कहा था कंकड़ का ये ढेर नहीं।
चाहा था एक कवि जगाना सोया हुआ एक शेर नहीं।
चाहा था एक कवि जगाना सोया हुआ एक शेर नहीं।
— क़मर जौनपुरी