हार का पहना हार
आ गई एक दिन
हार मेरे सामने
हंस रही थी वो
दुखी मुझे देख के
मन तो ना था मेरा
बांत करने का जरा
पर प्रश्न जो उसने किया
निरूत्तर भी रह ना सका
क्या निराशा का हार ही
सदा मुझे पहनाओगे ?
पाठ जो सिखाया है
क्या समझ ना पाओगे?
मेहनत भरपूर थी
जोश भी कम ना था
हाथ जीत से मिलाना
नसीब को पसंद ना था
मैने चुना है तुम्हे या
तुमने मुझे है चुना ?
जीत तो उसी की थी
जिसमे ज्यादा दम भरा
तुमसे पाई है सीख तो
सुधार बेशक मैं करू
पर गवां दिया जो जोश
उसे कंहा से मैं भंरू
यही तो है कर्म तेरा
भाव को तू थाम ले
कमी को सुधार के
हौंसले को उड़ान दे
हार बस एक पडाव
जीत की मंजिल का
सांस भर, विचार कर
फिर लक्ष्य को बढे चाला
संदीप पांडे”शिष्य” अजमेर