हाय रे ये मजबूरियां……
खून जला के मांस गला के,
जीवन भर महल बनाये हैं,
फिर भी सावन के बारिश ने
हमें आधी रात जगाए हैं,
कोने में बैठे हाथ जोड़ के,
मुनिया पूछे आस जोड़ के,
बारिश कब तक जायेगी,
क्या सारी रात जगायेगी?
हलख से एक आवाज न आती,
हाय रे ये मजबूरियां……
ओढ़ रजाई गर्म कमरे में,
सोते हो तुम तान के,
उस पूस की रात में हम,
खेतों में चलते हैं सीना तान के,
फिर भी सुबह जब मुन्ना पूछे,
बाबा…स्कुल की फ़ीस कब दी जायेगी,
हलख से एक आवाज न आती
हाय रे ये मजबूरियां…..
हम वो हैं जो जिसे तुम
अंग्रेजी में फार्मर कहते हो,
हम खेतों में फार चलते हैं
तुम फिर भी मर मर कहते हो,
अरे जाओ साहब हमें रोकना,
तुमसे ना हो पायेगा,
ठंढी पूस और गर्म जेठ,
जब हमें झुका ना पाते हैं,
तब तेरी पानी के टैंकर और बारूद
हमे कहाँ झुका पायेगा,
अब तेरी आँखों में आँखे,
डाल के बात की जायेगी,
हाय रे ये मजबूरियां…
हलख से एक आवाज न आएगी।।
Rana…..